Thursday, June 16, 2011

दम तोड़ता जन लोकपाल

भ्रस्टाचार और काले धन के विरुद्ध खड़े हुए जन आन्दोलनों से सरकार जिस कठोरता से निपट रही है उसकी प्रस्तुति १९७५ के लोकनायक के आन्दोलन फिर ३५ वर्ष बाद ४ जून २०११ की रात १ बजे राम लीला मैदान में देखने को मिली। सिविल सोसाइटी द्वारा प्रस्तुत जन लोकपाल विधेयक का यही हस्र होना लग भग तय हो चुका है। वास्तव में सरकार के अतरिक्त कोई भी राज नैतिक दल और कोई जन प्रतिनिधि इस रूप में इसे नहीं चाहते हैं, जिसमें उनके ऊपर कोई शिकंजा कस सके, क्योंकी सभी राजनैतिक दल और उनके नेता आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे हुए हैं, सभी प्रान्त सरकारें, केंद्र सरकार और उनके मुखिया भी कही ना कही भ्रष्टाचार से जुड़े है। जहां तक केंद्र सरकार की बात है वह तो भ्रष्टाचार का अवतार है जिसमें एक के बाद एक मंत्री(ऐ राजा, कलमाडी, दया निधि मारन, फिर चिदम्बरम और परतें खुलने दीजिये--) सम्मिलित हैं। आखिर एक लाख छेहत्तर हजार करोड़ (१७६०००००००००००) की लूट है। आखिर सब के हिस्से में कुछ ना कुछ आया होगा।
सिविल सोसाइटी का जन लोकपाल प्रस्ताव कुछ ऐसा ही है, जैसे चोरों से त्रस्त कुछ लोग चोरों से ही कहें कि भाई एक ऐसा सख्त थानेदार बनाओ जो चोरों और उनके मुखिया को पकड़ कर दण्डित भी करे, भला वो ऐसा क्यों करेंगे। अरे कम से कम मुखिया को तो छोड़ दो, यदि वह छूटा रहा तो अपने गैंग के चोरों उचित हिस्सा मिलने पर बचा लेगा( जैसा शीला के एक मंत्री को निर्दोष करार दिया)। भारत में लोकतंत्र स्थापित होने के बाद से ही घोटालों का दौर प्रारम्भ हो गया, परन्तु ना कोई अपराधी पकड़ा गया और ना ही पैसा वसूला जा सका; जीप घोटाला, स्टीम इंजन घोटाला, नागर वाला कांड से बोफोर्स तक, यूरिया घोटाला, कमान वेल्थ घोटाला,२जी घोटाला आदि, ये सब केंद्र सरकार कें हैं। इसी प्रकार राज्य सरकारों के अपने घोटाले हैं। आम तौर पर जितनी भी चोरी चोर करते हैं, उनके मुखिया को सब पता रहता है और हर चोरी का एक बड़ा हिस्सा मुखिया लेता है और बदले में अपने गेंग के चोरों को बचाता है(जैसे ऐ राजा और कलमाड़ी का बचाव मनमोहन और सिब्बल ने किया)। किसी किसी गेंग का मुखिया चालाक होता है और वह परदे के पीछे रहता है और गेंग का संचालन कोई और करता है इस प्रकार अपराध बोध से बचा रहता है। जब कभी चोर पकडे जाने की स्थिती में होता है तो पीछे भागती भीड़ पर कुछ धन उछाल देता है और भीड़ वह धन बटोरने में लग जाती है(सांसद निधि से मन रेगा तक तमाम अवसर जन प्रितिनिधियों को दिए गए हैं)
लगभग यही हल इस समय केंद्र एवं राज्य सरकारों और नेताओं का है। वास्तव में चोरी उनकी विवशता है, जो व्यक्ति करोड़ों रुपये व्यय करके चुनाव जीतता है उसकी भरपाई बगैर चोरी कैसे करेगा; इसीलिये कुछ नेता और मंत्री सिविल सोसाइटी के लोगों को चुनाव लड़ने की सलाह दे रहे है। यदि ये वास्तव में ईमानदार हैं तो इतना धन होगा नहीं कि चुनाव लड़ सकें और यदि एक दो लोग जीत भी गए तो वे कुछ भी कर नहीं सकेंगे। चोरी तभी रुक सकती है जब एक सक्छाम और ईमानदार थानेदार हो। यदि पूरा थाना ही चोर हो तो क्या हो सकता है। अन्ना ने ठीक ही कहा है 'यह आजादी की दूसरी लड़ाई है' जो पहली लड़ाई से अधिक कठिन है।