१६ मई २००८ को जिस १४ वर्षीय नाबालिग बालिका आरुषी एवं एक नौकर हेमराज की
हत्या की गई थी, जिसने पूरे देश में एक तहलका मचा दिया था। दिनांक २५ नवम्बर २०१३
को न्यायालय का निर्णय आगया है, जिसमें आरुषी के माता-पिता ‘नूपुर’ एवं राजेश
तलवार को दोषी पाया गया है। आखिर ऐसा क्या हुआ कि एक माता-पिता को अपने ही कलेजे
के टुकड़े की हत्या करनी पडी। जांच से पता चला कि १५ मई २००८ की रात्रि में इस
नाबालिक पुत्री को अपने नौकर हेमराज के साथ अत्यधिक आपत्ति जनक स्थिति में देखा था
और वे अपने ऊपर संयम नहीं रख सके। एक बात निश्चित है कि यह योनाचार आपसी सहमति से
हो रहा था। प्रश्न उठता है कि क्या इस नाबालिक बालिका के साथ सहमति से हो रहे यौनाचार
को सहजरूप में लेना चाहिए था? तलवार दंपत्ति धन कमाने और आधुनिकता की दौड़ में कुछ
इस प्रकार संलिप्त हुए कि अपनी बच्ची से ध्यान हटा बैठे और नौकर पर अति विश्वास कर
लिया। स्त्री स्वातन्त्रके हिमायती संभवतः इसमें कुछ भी बुरा न माने परन्तु आधुनिक
जीवन यापन करने वाले तलवार दंपत्ति अन्तःकरण से पुरातन भारतीय परम्परा के हिमायती
थे जो पुत्री के कुंवारेपन पर आई आंच को सह नहीं पाए और अपराध कर बैठे। आज इस राष्ट्र
के प्रत्येक महत्वपूर्ण संस्था में और दैनिक जीवन में जो यौन उत्पीडन की घटनाएं
सुनाई देतीं हैं उसके मूल में यह दोहरे मापदंडों में जी रहे लोगों की दुविधा का
परिणाम दिखता है। एक ओर हमारे अंतःकरण में पुरातन मान्यता कूट कूट कर भरी हुई है
जिसमें नारी को अति पवित्र माना गया था और उसकी काया को कुत्सित भाव से कोई नहीं
छू सकता था। नारी काया पर मात्र उसके पति का ही अधिकार होता था। अपनी उस काया को
आततायी से बचाने और अपने सतीत्व की रक्षा के लिए यहाँ की वीरांगनाएँ जौहर करके
स्वयं को जीवित जला देती थीं। यहाँ ‘यत्र नार्यस्तु पूजन्ते रमन्ते तत्र देवता’ का
भाव रखते हुए नारी को माता और बहन के रूप में देखने की पवित्र परम्परा रही है,
इसीलिये यहाँ के समाज में आदर्श रूप में भगवती सीता, माता अनुसुइया और महान सती
सावित्री जैसी विभूतियाँ रही हैं। नारी को पूज्या और शक्ति का प्रतीक माना गया उसे
कभी भी भोग्य नहीं माना गया, यद्यपि इस पुरुष प्रधान समाज में कुछ मध्यकालीन
कवियों ने अपनी कृति में अनावृत नारी सौन्दर्य का नखशिख कामुक वर्णन किया है और
उसमें विद्वानों को सौन्दर्य बोध भी होता है उसी प्रकार प्रसिद्ध चित्रकार
मक़बूलफ़िदा हुसैन को भी निर्वस्त्र नारी कलेवर की चित्रकारी में ही सौन्दर्य दिखता
था। इनलोगों को यह सौन्दर्य बोध निर्वस्त्र पुरुष में क्यों नहीं दिखा? इतना सब
होने पर भी उस काल में संचार माध्यम इतने सशक्त न होने से यह गंदगी जन जन तक नहीं
फ़ैल सकी और बच्चे बचपन से अपनी दादी-नानी द्वारा महान सतियों की कहानी सुनकर
स्त्री जातिके प्रति अलौकिक सम्मान और श्रद्धा भाव से संस्कारित होते रहते थे,
उन्हें राम का एक पत्नीवृत्त, शिवाजी का नारी जाति के प्रति आदरभाव और इसी प्रकार
की विभिन्न ऐतिहासिक-पौराणिक कथाएँ जिनमें नारी रक्षा के लिए प्राणोत्सर्ग तक करने
की घटनाएं रहती थीं सुनने और पढने को मिलती थीं। नारी-पुरुष का आपसी आकर्षण
प्राकृतिक और स्वाभाविक है परन्तु वह किस प्रकार का संयमित हो यह देखने को मिलता
है जब भगवान् राम भगवती सीता को प्रथम बार पुष्प बाटिका में देखते है और मोहित
होते हैं परन्तु छोटे भाई के साथ होने से तत्काल स्वयं को सम्हालते हैं और कहते
हैं ‘राघुवन्शिंह कर सहज सुभाऊ, मन कुपंथ पग धरहि न काऊ ‘ यही भाव संस्कारों
द्वारा हमारे अंतःकरण में बहुत गहरे तक समाया हुआ है और दूसरी ओर हम अन्य
संस्कृतियों का अनुँकरण कर नारी को भोग्या और सहज उपलब्ध मानते हैं जहां एक हेलो
हाय के पश्चात कोई न कोई बाला सहज रूप से डेट पर आपके साथ हो लेती है और थोड़ा सा
धन व्यय कर सहमति से उसके साथ मनमानी करते हैं, जिसका परिणाम है कि उन संस्कृतियों
में शायदही कोई बालिका युवावस्था पूर्व यौनानुभाव से बचती हो और बहुत बड़े परिणाम
में १३ वर्ष तक की बालिकाएं गर्भ धारण कर लेती हैं।
आज हम बाह्य रूप में तो आधुनिकता और आधुनिक प्रगति की दौड़ में सम्मिल्लित हो
गए हैं परन्तु अंतःकरण से उन्ही पुराने संस्कारों में जकड़े हुए हैं। दिखावे के रूप
में बच्चों को पूर्ण और अनावश्यक स्वतंत्रता प्रदान करते हैं, उनकी निजता का ध्यान
रखते हुए अलग कमरा, एकांत में कहीं भी अपने मित्रों से मिलने की छूट प्रदान करते
हैं और उसी का परिणाम आज समाज के प्रत्येक क्षेत्र में बढ़ते दिख रहे यौन अपराध
हैं, फिर चाहे वह धर्म का क्षेत्र हो, न्याय का क्षेत्र हो, राजनीति का या मीडिया
का, चाहे आशाराम हों, तहलका के तरुण तेजपाल, पूर्व जज या राजनेता एक बात इन सभी
में सामान्य है कि जिन युवतियों का यौन उत्पीडन इनके द्वारा हुआ वह बन्दूक या चाकू
की नोक पर नहीं हुआ, उस यौन अपराध में युवतियों की इस अनाचार को सहने के पीछे कुछ
पाने की लालसा थी। कहीं मोक्ष तो कहीं पदोन्नति, नौकरी या ख्याति और धन। पुरुष को
परमात्मा से शारीरक संरचना में ऐसा वरदान मिला है कि उसकी इक्षा के विरुद्ध उसके
साथ यौनाचार नहीं हो सकता जबकि स्त्री इतनी भाग्यशाली नहीं है, ऐसे में नारी को
अपनी अस्मिता बचाने के लिए स्वयं सतर्क रहना ही पड़ेगा. क्या आज नारी अपनी
स्वतंत्रता के नाम पर निज उत्तेजनात्मक कायावयवों को प्रदर्शित करने वाले परिधान
धारण नहीं करती? आज स्त्रियों के प्रति बढ़ते अपराधों के लिए आज का परिवेष और
स्त्री स्वयं उत्तरदायी है। यदि स्त्री चाहती है कि समाज उसमें अपनी माँ, बहन और
अच्छे मित्र की छवि देखे तो उसे अपने आचरण को गरिमापूर्ण बनाना होगा और समाज के
समक्ष उसी रूप में प्रस्तुत करना होगा। आज सिनेमा और बुद्धू बक्सा समाज और बच्चों को सर्वाधिक प्रवाभित करने वाले साधन हैं जिनके द्वारा आज हम बच्चे को बचपन से स्त्री को किस रूप
में दिखा रहे हैं? आज के इस औद्योगिक और विज्ञापन के बाजारू युग में यदि सर्वाधिक
विज्ञापन किसी का हुआ है तो वह नारी है, किसी भी उत्पाद का विज्ञापन हो बगैर
स्त्री के पूरा नहीं होता। चाहे वाहन का विज्ञापन हो, पुरुष परिधान का या सेविंग
क्रीम का विज्ञापन हर विज्ञापन में स्त्री का विद्रूप स्वरूप ही सामने आता है। एक
परफ्यूम के विज्ञापन में जिस प्रकार अर्धनग्न उत्तेजनात्मक रूप में कई बालाएं
पुरुष के चारों ओर लिपट जाती हैं, इसी प्रकार स्वास्थ्य वर्धक औषधि के विज्ञापन
में पुरुष की बलिष्ठ काया को जिस वासनात्मक रूप में निहारती है ये स्त्री की गरिमा
को बाजारू बना देती है और बचपन से बच्चे के मष्तिष्क में नारी माँ-बहन के रूप में
न होकर एक उत्पाद के साथ सहज और मुफ्त में उपलब्द्ध बाजारू औरत के रूप में व्याप्त
हो जाती है। इन विज्ञापनों के लिए इन बालिकाओं को बन्दूक की नोंक पर विवश नहीं
किया जाता है। आज के इन अपराधों के लिए केवल पुरुष समाज को और कानून को कोसने वाले
नारी संघटनों को सोचना पड़ेगा और उसे बाजारू छवि से मुक्त करना होगा अन्यथा
कितने भी कड़े क़ानून बनालें और बहस करलें ये अपराध तब तक समाप्त नहीं होंगे जब तक
लडकी सहज रूप से डेट के नाम पर एक प्याला मदिरा और एक बर्गर में उपलब्ध न हो जाए.
आज हमारे आदर्श बदल गए हैं, सीता सावित्री के स्थान पर आज हमारे आदर्श वो सिनेमा
तारिकाएँ हैं जो विवाह पूर्व तीन-चार पुरुषों के साथ लम्बे समय तक अन्तरंग रूप से
रह चुकी हैं, छोटे छोटे बच्चे ‘चोली के पीछे क्या है’ ? ढूँढने में लगे हैं फिर
समाज को इसके परिणाम तो भोगने ही पड़ेंगे.
आज हर प्रकार के बढ़ते अपराधों के पीछे मदिरा के चलन का भी बहुत बड़ा हाथ है.
पाश्चात्य संस्कृति का अन्धानुकरण करते हुए अभिजात्य वर्ग में इसका चलन बहुत अधिक
बढ़ गया है. कोई भी अवसर हो, उत्सव या आवश्यक मंत्रणा बैठक बगैर मदिरा के पूर्ण
नहीं होती. यह वर्ग विद्वान् और धनवान है अतएव इसके पक्ष में अकाट्य तर्क भी
प्रस्तुत करने में पीछे नहीं रहता है. जबकि मदिरा पान की स्थिति में गाडी चलाना
अपराध है तब मदिरा पान करके कोई सार्थक निर्णय लेना कैसे सही है? मदिरा पान आज अनावश्यक
स्टेटस सिम्बल बन गया है. तहलका के तरुण तेजपाल ने कहा लडकी के साथ जो हुआ वह
मदिरा के नशे में हुआ. जब सब जानते हैं तब मदिरा छोड़ क्यों नहीं देते. इस मदिरा के
कारण उस तेजपाल को जिसने कभी अपनी खोजी पत्रकारिता से तहलका मचा दिया था पूरे
विश्व के सामने न केवल लज्जित होना पड़ा हो सकता है जेल भी जाना पड़े .
यदि वास्तव में हम समाज में स्त्रियों के प्रति नित्यप्रति बढ़ते अपराधों को
रोकना चाहते है तो इस आधुनिकता की अंधी दौड़ से हट कर बच्चों को प्रारम्भ से उच्च
संस्कारों से संस्कारित करना होगा और नारी को सौम्य एवं गरिमामय रूप में प्रस्तुत
करना होगा . भारत की संस्कृति भिन्न हैं यहाँ की बालाएं योग्य, मेघावी और
आत्मसम्मान की रक्षा करने में समर्थ हैं. आज वे जीवन के हर क्षेत्र में बढ़-चढ़ कर
अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर रहीं हैं; ऐसे में महिला संघठनों को तत्काल उन सभी
विज्ञापनों पर जिनमें उनकी गरिमा को गिराया जाता है न केवल प्रतिबंध लगवाना होगा
अपितु कठोर दंड का भी प्राविधान करना होगा, इसी प्रकार नारी सौन्दर्य के नग्न
प्रदर्शन वाले आईटम गीतों और दृश्यों को फिल्माने और दिखाने पर रोक लगानी होगी क्योकि
महिला के साथ अभद्र व्यवहार के लिए केवल कठोर क़ानून से काम नहीं बनेगा पुरुषों और
समाज को नारी के गरिमामय रूप के दर्शन फिर से कराने होंगे और उनके दिल में श्रद्धा
और सम्मान का भाव संस्कारित करना होगा .