Thursday, January 7, 2016

अदृष्य


घटना - १
प्रत्येक मनुष्य के जीवन में कभी न कभी ऐसी घटनाएं अवश्य घटती हैं, जिनकी चाहत उसके अन्तःकरण में रहती हैं; परन्तु असम्भव प्रतीत होती हैं और उसके लिए उसका प्रयास भी नगण्य रहता है, ऐसी घटनाओं के होने पर हममें से अनेकों को लगता है कि, इसके पीछे किसी अदृष्य शक्ति का हाथ है, जो हम सबका निरंतर ध्यान रखती है | ऐसी ही कई छोटी-मोटी घटनाएं मेरे स्वयं के जीवन में भी घटी हैं, उनमें से एक का यहाँ उल्लेख कर रहा हूँ |
बात १९९३ की है मैं दूरसंचार विभाग में कानपुर में जूनियर इंजीनियर के पद पर कार्य करता था | विभागीय प्रोन्नति के लिए परीक्षा दी थी और उसमें मैं उत्तीर्ण भी हो गया था, आगे की प्रोन्नति सहायक अभियंता के पद पर होनी थी, और कुछ लोगों की (जो बहुत वरिष्ठ थे) प्रोन्नति सूची आ गई थी, सभी को जहाँ वे कार्यरत थे उस स्थान से दूर कहीं दूसरे नगर में भेजा जा रहा था | मुझे बहुत प्रयाषों के उपरान्त अपने खर्चे पर नौकरी के १३ वर्षों पश्चात कानपुर मिला था | कानपुर में अम्मा-बाबूजी थे, दोनों वृद्ध और अम्मा का स्वास्थ्य निरंतर खराब रहता था, बाबूजी को पार्किन्सन था (यद्यपि हम एक नगर में रहते हुए भी उनसे १५ कि.मी. दूर रहते थे और किसी विपरीत परिस्थिति में सूचना मिलने के १ घंटे उपरान्त ही पहुँच सकते थे), बच्चे ऐसी क्लासों में आ गए थे कि मेरे विचार से उस समय उन्हें मेरे सहारे और मार्ग दर्शन की आवश्यकता थी, अतएव मैं अपनी प्रोन्नति के अवसर को छोड़ने का मन बना रहा था और इसकी चर्चा अपने सहकर्मियों से कर दी थी; पता नहीं कैसे इस बात का पता बाबूजी को लग गया और वे मेरे इस निर्णय से खिन्न तथा रुष्ट हो गए थे; इस बात का पता तब लगा, जब मैं रविवार को उनसे मिलने गया और उन्होंने मुझसे बात नहीं की, बहुत पूछने पर उन्होंने प्रोन्नति छोड़ने का कारण पूछा, मैं अवाक, मैंने बताया कि बच्चों के मार्गदर्शन के लिए मुझे कानपुर में रहना आवश्यक है, और प्रोन्नति में कानपुर छोड़ना निश्चित है | इस पर उन्होंने कटाक्ष करते हुए कहा ‘तुम्हारे साथ एक अच्छी बात है कि तुम्हे भविष्य की जानकारी है, और यह भी जानते हो कि बच्चों का भविष्य तुम्हारे प्रयाषों पर निर्भर है, यह समझलो अवसर हर बार दस्तक नहीं देते हैं |’ मैं सन्न, और प्रोन्नति न छोड़ने का निश्चय कर वापस चला गया |

लगभग एक वर्ष पश्चात मेरे सभी साथियों की प्रोन्नति सूची प्रकाषित हुई, सभी को कानपुर से दूर पोस्टिंग दी गई थी (जबकि उनमें से अधिकाँश के परिचय विभागीय उच्चाधिकारियों, राजनेताओं मंत्रियों आदि से थे और कानपुर पोस्टिंग के लिए सभी ने प्रयास भी किये थे); उस सूची में केवल मेरा नाम नहीं था, मेरी कहीं पहुँच और परिचय भी नहीं था; मुझे लगा किसी कारण से मेरी प्रोन्नति नहीं हुई होगी | लगभग एक माह पश्चात (तब तक सभी कानपुर छोड़कर नए स्थान पर चले गए थे ) अचानक कार्यालय में मेरे उच्चाधिकारी का फ़ोन आया ‘मि. अग्रवाल क्या आपको कानपुर पोस्टिंग चाहिए?’ मैं कुछ समझ नहीं सका, पूछा ‘क्या कानपुर मिल सकता है?’ उन्होंने कहा प्रयाष तो करो, डी.जी.एम्. साहब से बात कर लो | सब कुछ अचानक और अविश्वनीय था, खैर मैंने डी.जी.एम्. से बात की और पूछा कि सर क्या मुझे कानपुर मिल सकता है? उन्होंने कहा, भई हम सबको तो बाहर नहीं भेज सकते, कोई तो काम करने वाला समर्पित व्यक्ति हमें भी चाहिए ( यहाँ यह बताना आवश्यक है कि जिन्हें बाहर भेजा गया था उनमें से अधिकाँश मुझसे अधिक कर्मठ और समर्पित थे), एक प्रार्थना पत्र इस आशय का कि तुम्हे कानपुर में क्यों रखा जाए, तुरंत फैक्स कर दो | यहाँ यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि अगले एक घंटे के अन्दर मेरी प्रोन्नति का पत्र कानपुर के लिए ही मेरे हाथों में था, और अगले दिन मैंने ज्वाइन कर लिया |



घटना - २
बात १९७४ की है सितम्बर का अंतिम रविवार था, उन दिनों में जोशीमठ में (बद्रीनाथ से ४२ कि.मी. पहले) पोस्टेड था, पावस ऋतु समाप्त हो चुकी थी, आकाश साफ़ और मौसम सुहाना था, अभी जाड़ा प्रारम्भ होने में लगभग एक माह का समय शेष था, इन दिनों राते ठंडी और दिन गर्म रहता था | उस दिन भविष्य बद्री जाने का निश्चय हुआ | यहाँ यह बताना आवश्यक है, कि ऐसी पौराणिक मान्यता है, कि जिस दिन विष्णुप्रयाग स्थित जय-विजय पर्वत गिर जाएंगे, और अलखनंदा का मार्ग अवरुद्ध हो जाएगा, उस दिन वर्तमान बद्रीनाथ के स्थान पर भविष्य बद्री प्रारम्भ हो जाएगा | भविष्य बद्री का मार्ग जोशीमठ से मलारी की ओर जाने वाले मार्ग से निकला है | उस दिन प्रातः ८:३० पर मैं, पत्नी और हमारे साथ विभागीय टेक्नीशियन राजकुमार तीनों एक टैक्सी से भविष्य बद्री के लिए निकले, साथ में, मार्ग के लिए भोजन ले लिया गया था | मार्ग में टैक्सी वाले ने पूछा कि हम लम्बे मार्ग से जाना चाहेंगे या छोटे मार्ग से | हमने पूछा कि लम्बा मार्ग कितना लम्बा और छोटा कितना छोटा है, उसने बताया कि लंबा मार्ग लगभग १०-१२ कि.मी. होगा और छोटा ३-४ कि.मी. | हमने छोटे मार्ग से जाने का निश्चय किया, हमने इस बात का ध्यान नहीं दिया था कि छोटा मार्ग निश्चित कठिन चढाई वाला होगा | टैक्सी वाले ने हमें सड़क किनारे एक पगडंडी के समीप छोड़ दिया, जो पहाड़ पर सीधी चढ़ाई पर ले जाती हुई गंतव्य तक जाती थी | यह पगडंडी काफी सकरी थी (जिससे लगता था कि उस मार्ग से लोगों का आव-गमन बहुत कम होता होगा) और उसके दोनों ओर बहुतायात में बिच्छू घाष उगी हुई थी, जिसके छू जाने से खुजली हो जाती है | इस पगडंडी पर हम तीनों एक के पीछे एक (पहले मैं, फिर पत्नी और अंत में राजकुमार) ऊपर की ओर चढने लगे, सहारे देने के लिए मैं, पत्नी का हाथ पकडे हुए था | थोड़ी देर में ही सूर्य की किरणें सीधी सर के ऊपर पड़ने लगी, और निरंतर चढाई के कारण थकान सी अनुभव होने लगी थी; परन्तु उस समय युवावस्था थी, अतएव थकान के पश्चात भी, निरंतर चढाई चढ़ते हुए ११:३० के लगभग २-२.५ कि.मी. चढ़ चुके थे, बीच बीच में चीड के घने वृक्ष मिलते थे जिनसे थोड़ी धूप रुकती थी | एक स्थान पर अचानक ४-५ पगडंडीयाँ अलग अलग दिशाओं के लिए छंट गईं थीं | चारों और सन्नाटा था दूर दूर तक कोई दिखाई नहीं दे रहा था | इस सन्नाटे को तोड़ते हुए कभी कभी पक्षियों का स्वर सुनाई पड़ जाता था | एक अनजान पहाडी रास्ता, किधर जाएं? यदि गलत पगडंडी पर चले गए, तो संध्या होने पर जंगली जानवरों और वर्षा का भय | तमाम विचार एक साथ दिमाग में आने लगे, और अंत में निराश हो कर, किसी प्रकार का ख़तरा न लेते हुए वापस आने का निश्चय कर लिया | भूख लगी थी, अतएव समीप ही एक निर्मल जल के झरने के किनारे विशाल देवदार के वृक्ष के नीचे, हम लोग भोजन करने बैठ गए | भोजन के समय निरंतर सोच रहा था, कि लगता है भविष्य बद्री के दर्शन भाग्य में नहीं हैं; इसी मध्य एक कुत्ता किसी पगडंडी से वहां आ गया, मानों डूबते को तिनके का सहारा मिला हो, कभी एक कहानी सुनी या पढी थी, कि कुत्ता गाँव से जंगल की ओर जाता है, अचानक वह कहानी यद् आई, और मैंने कहा कि, यह कुत्ता जिस मार्ग से आया है, हम उसी मार्ग पर चलते हैं,  और हम चल पड़े, परन्तु यह क्या ? वह कुत्ता थोड़ी दूर तक हमसे आगे चला गया, फिर वापस आ गया, जैसे कोई देवदूत हमें गंतव्य की ओर निरापद ले जा रहा हो, पूरे रास्ते इसी प्रकार वह कुछ दूर आगे जाता, फिर वापस आ कर हमें साथ लेता, इस प्रकार उसके मार्गदर्शन में हम १.५-२ कि.मी. चल कर एक बस्ती में पहुँच गए, उसके पश्चात वह देवदूत वापस नहीं लौटा | गाँव वालों ने बताया, हम सही आए हैं, आगे एक सरकारी सेव का बगीचा है, जिसका रखवाला ही हमें भविष्य बद्री के दर्शन कराएगा | हम लोग उस बगीचे में पहुंचे, तो वहां एक कुत्ता बंधा हुआ था, जिसे देखकर, हम तीनों के मुख से अचानक निकला ‘ यही कुत्ता तो हमें यहाँ तक लाया है’ इस पर उस बाग़-रक्षक ने कहा, यह तो प्रातः से ही यहाँ जंजीर से बंधा है, इसे केवल रात्रि में बाग़ की रखवाली के लिए खोला जाता है, और यह बहुत खूंखार है, उस रक्षक के अतिरिक्त किसी पर भी आक्रमण कर देगा | तब हमें याद आया रहीम का दोहा
रन, बन, व्याधि, विपत्ति में रहिमन मरिये न रोय |
              जो रक्षक, जननी जठर, सो हरि गयऊ न सोय ||