यूं तो मैं संसद की कार्यवाही कभी गलती से
भी टेलीविजन पर नहीं देखता हूँ; क्यों कि संसद का दृष्य और वार्तालाप बहुत कुछ
पुरातन सम्मिलित भारतीय परवारों के जैसा ही दिखता है, जिसमें दोपहर में मर्दों
(जनता) के घर से चले जाने के पश्चात सास-बहू, देवरानी-जिठानी, या ननद-भाभी के
उलाहने और आरोप-प्रत्यारोप खुल कर होते हैं, कभी कभी जब बात हद से अधिक बढ़ जाती
है, तो एक दुसरे की चारित्रिक पर्तों का जो अनावरण होता है, वह आश्चर्यचकित कर
देने वाला होता है | यदि कभी आप उसे स्वयं सुन पाते, तो पता चलता कि जिस बहन,
बेटी, पत्नी या पुत्रवधू को आप सर्वाधिक सुसंस्कृत समझते रहे हैं, वास्तव में वह
कहीं से उसके आस-पास भी नहीं है | कभी कभी तो जब किसी कुकृत्य में दो लोग सम्मिलित
होते हैं और फिर किसी बात पर मत भिन्नता होने पर एक दुसरे को लांक्षित करते हुए
आरोप लगाते हैं, और वही लोग किसी पर्व पर, जब उनको अपने सबके लिए नए वस्त्र-आभूषण
खरीदने होते हैं तो उनका आपसी सामंजस्य और आपसी प्रेम देखते हैं, तो ठीक भारत की
संसद का सा दृष्य दिखाई पड़ता है | लेकिन आज कल के बच्चों को तो इस प्रकार के
परिवारों का अनुभव ही नहीं है; क्यों कि अधिकाँश परिवारों में तो एक ही बच्चा होता
है तो नन्द-भोजाई या देवरानी-जिठानी की तकरार दिखाई नहीं देती, इसी लिए इस नई पीढी
को संसद की कार्यवाही देख कर कुछ अटपटा सा लगता होगा, परन्तु इससे उन्हें एन्टीक
भारतीय परिवारों के वातावरण के विषय में जानकारी मिलती है | हाँ तो मैं कह रहा था
कि ७ अगस्त २०१५ को अचानक टी. वी. खोला तो लोकसभा चैनल खुल गई, जिसमें कोई
बी.जे.पी. के सांसद बोल रहे थे, शायद विषय था सांसद निधि, उनका कहना था कि पांच
करोड़ सांसद निधि बहुत कम रहती है इसे बढ़ाकर १५ करोड़ किया जाना चाहिए, इस पर पूरे
सदन से समवेत स्वरों में आवाज आई १५ नहीं २५ करोड़, इसे कहते हैं संसदीय एकता,
ध्यान रहे २१ जुलाई से आज तक किसी विषय पर संसद हंगामे के अतिरिक्त कभी एक मत
दिखाई नहीं दी | वास्तव में यह मांग है भी न्याय संगत, भई महंगाई बढ़ गई है ५ करोड़
पर २०% के हिसाब से केवल एक करोड़ ही तो कमीशन बनता है, इतने में तो दिल्ली जैसे
शहर में एक अच्छासा फ़्लैट भी नहीं मिलेगा, अब २८ रु के भोजन और संसद सत्र में बगैर
काम किये भी मिलने वाले वेतन-भत्ते से कितनी कमाई होगी? हर किसी को तो मंत्रीमंडल
या क्रिकेट बोर्ड जैसी कमाऊ संस्थाओं में जगह मिल नहीं जाती कि विभिन्न कामों में
मोटा कमीशन लेकर, अधिकारियों के ट्रान्सफर-पोस्टिं आदि में अलग से मोटी कमाई कर
सके; न ही क्वात्रोच्ची एवं ललित मोदी जैसे लोग हर एक को आर्थिक लाभ पहुँचाएँगे |
ऐसे में सामान्य सांसदों, विधायकों एवं अन्य जन प्रतिनिधियों का सहारा तो एक मात्र
यही निधि है, इसी से इस चुनाव का करोड़ों रु और अगले चुनाव का खर्च भी निकालना है,
अब हर कोई तो इतना भाग्यशाली है नहीं कि उसका चुनावी खर्च बड़े बड़े उद्योगपती उठा
लें, उसके लिए बड़ी बड़ी बाते और बड़े बड़े वादे करने का सीना चाहिए |
बात केवल अपने तक सीमित होती तब भी ठीक था,
अब अपने नालायक, आवारा एवं पप्पू किस्म के बेटों, दामादों, बहुओं, बेटियों आदि को
भी तो इसी राजनीति में स्थापित करने के लिए प्रचुर धन चाहिए | अब क्या कहें यह
व्यवस्था भी यदि हिन्दू वर्ण व्यवस्था जैसी होती, (जहाँ ब्राहमण की अयोग्य संतान भी
ब्राह्मण और पूज्य होती है | डरने वाली क्षत्रिय की संतान बहादुर क्षत्रिय ही होती
है, व्यापार का ककहरा न जानने वाला वणिकपुत्र वणिक ही होता है, परन्तु सचरित्र और
प्रखर विद्वान् शूद्र की संतान सदैव अस्पर्श्य ही रहती है, यद्यपि विद्वान् बार
बार सद्ग्रंथों का उदाहरण प्रस्तुत करते है कि वर्ण व्यवस्था जन्म से न हो कर कर्म
से रही है और उसके लिए एक-दो उदाहरण भी प्रस्तुत करते हैं, यथा बाल्मीकी,
विश्वामित्र अपने कर्मों से महान संत बन गए) तो कोई समस्या नहीं होती फिर तो,
जनप्रतिनिधि का बेटा, बेटी, दामाद आदि स्वतः जन प्रतिनिधि होते फिर कोई खर्च नहीं
करना पड़ता; यद्यपि कुछ क्षेत्रों में तो हो गया है, जैसे प्रधानमंत्री का बेटा
प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री का बेटा मुख्यमंत्री और पार्टी अद्ध्यक्ष का बेटा
पार्टी अद्ध्यक्ष बनने लगा है, बेटा बड़ा न हो तो निरक्षर पत्नी भी मुख्यमंत्री बन
सकी है; परन्तु सामान्य जनप्रतिनिधि को तो अभी संघर्ष ही करना पड़ता है, अभी
गणतंत्र बने ७० वर्ष भी तो नहीं हुए हैं, इतने में ही बहुत कुछ जन्म के आधार पर हो
गया है, यद्यपि संविधान भारतीय सद्ग्रंथों की तरह अपने दिशा निर्देश दे रहा है |
लोग कहते हैं राजनेता चुनाव के लिए झूठे
वादे करते हैं; तो यह हमारी अपनी समझ की कमी है, कांग्रेस ने कहा कि गरीबी हटाओ,
तो अभी पिछले चुनावों में कहा गया “अच्छे दिन आने वाले -----हैं” अब खुद सोचें जन
प्रतिनिधि का तात्पर्य क्या है, जनता के एक समूह का प्रतिनिधि अर्थात उसको देखकर
उस जनता के विषय में आप अनुमान लगा सकते हैं, जिसका वह प्रतिनिधि है | अब खिचडी
में एक या दो चावल ही तो देखते हैं कि वे पक गई या नहीं, पूरी की पूरी खिचडी तो
मसल कर देखते नहीं इसी प्रकार गरीबी हटी या नहीं, अच्छे दिन आए या नहीं इन जन
प्रतिनिधियों को देख कर ही अनुमान लगाया जा सकता है, न कि पूरी की पूरी १२५ करोड़
आबादी को | तो अब आप स्वयं देख लें कोई भी सांसद या विधायक शायद ही कई करोड़ से कम
का मालिक हो, और तो और साईकिल से चलता हुआ किराए के मकान में रहने वाला एक व्यक्ति
सभासद या सरपंच चुना जाता है तो एक वर्ष पूरा होते होते बड़ी चौपहिया से चलने लगता
है, और कई प्लाट, फ़्लैट, आदि का स्वामी हो जाता है, और कितनी तीव्र गति से आप वादे
पूरे होते देखना चाहते हैं ?
अब बात विदेशों में जमा काले धन की, तो जो कुछ कहा गया था, सत्ता से बाहर रहते
हुए कहा गया था, वह एक अनुमान था कि भृष्ट लोगों के खाते विदेशों में हैं, जिनमें
खरबों रु जमा होंगे; परन्तु अब पता चला कि जनप्रतिनिधियों के खातों में तो कोई
काला धन है ही नहीं, वह तो जनता की गाढी कमाई का धन है, भई जनप्रतिनिधि तो जनता का
है, इसलिए जनता का सब कुछ उनका अपना है, वैसे भी जन सामान्य मोह-माया से दूर रहने
के कितने उपाय करता है, इसके लिए कितने साधू-संत प्रयासरत हैं, वही काम तो माननीय
कर रहे हैं, वे तो एक कदम आगे बढ़ कर स्वयं भी माया को अपने से बहुत दूर दूसरे देश
में रखे हैं, अब कुछ बड़े व्यापारी, वे तो अहर्निश राष्ट्र सेवा में लगे हैं, हर
चुनाव में जनतंत्र को मजबूत बनाने के लिए सुपात्रों के चुनाव का बड़ा खर्च उठाते
हैं, तो राष्ट्र का धन राष्ट्र में ही व्यय होता है, फिर भी सरकार पूरी गंभीरता से
प्रयासरत है कि जो भी काला धन विदेशों में है उसे शीघ्र वापस ला सके | मेरे एक
परिचित बोले कि पूरा मानसून सत्र बेकार चला गया कोई काम नहीं हुआ; अब उन्हें कौन
समझाए कि यह व्यवधान सता पक्ष एवं विपक्ष की आपसी सहमति से ही होता है, दोनों पक्ष
के लोगों को सरकारी वेतन-भत्ते के साथ अपने कुछ अति आत्मीय एवं अन्तरंग लोगों से
मिलने का समय भी चाहिए होता है, पिछले तमाम सत्रों में देख लीजिये अंत के तीन-चार
दिन ही कुछ कार्य होता है, साथ ही यदि संसद में जी.एस.टी., भूमि अधिग्रहण जैसे
फालतू के बिल लाए जाएंगे तो सत्र में हंगामा नहीं होगा तो क्या होगा? अरे इनके पास
होने से माननीय लोगों को क्या मिलेगा ? माननीय लोगों के वेतन-भत्ते बढाने, सांसद
निधि बढाने जैसे प्रस्ताव लाइए देखिये संसद कैसे एक मत हो कर चलती है, विद्यालयों
में पुष्टाहार बांटने जैसे जन-कल्याणकारी प्रस्ताव आने चाहियें, बच्चों को खराब
आहार न मिल जाए इसलिए इसे सतर्क प्रषाशन के मंत्री से लेकर संतरी तक सभी चख कर
देखते हैं, और चखने चखने में आधा ही बच्चों के लिए शेष बच पाता है; लेकिन कोई बात
नहीं दूध और दलिया सुपाच्य और सही पुष्टाहार है | दूध में आप कितना भी पानी मिलाते
जाएं, स्टेशन की चाय के दूध से भी पतला होने पर भी उसे दूध ही कहा जाएगा, इसी
प्रकार दलिये में कितना भी पानी मिला दीजिये, जब तक गेंहूं का दाना दिखेगा, वह
दलीया ही कहलाएगा | अब महिला आरक्षण विधेयक को ही लीजिये कितने प्रयाष के पश्चात
भी अभी तक पारित नहीं हो सका; कारण वह प्रस्तुत ही गलत तरीके से किया गया था | यदि
कहा गया होता कि लोकसभा में जो भी पुरुष सांसद हैं, उनकी पत्नी, पुत्री, प्रेयसी
आदि ही राज्य सभा की सदस्य होंगे, उसी प्रकार जो महिला सांसद है उनके पुरुष साथी
ही राज्य सभा में आएँगे, आशा ही नहीं विश्वाष है कि प्रथम प्रयाष में ही यह बिल
पास हो गया होता और नारी शक्ति को उचित प्रतिनिधित्व भी मिल गया होता | हम सभी ने
अनुभव किया होगा कि जिस कार्य को वेतन भोगी चार कर्मचारी पांच दिन में कर पाते
हैं, उसी कार्य को उन्ही में से तीन कर्मचारी ठेके पर मात्र तीन दिन में पूरा कर
देते हैं; तो संसद को ठेके पर भी चलाने पर विचार किया जा सकता है | यथा पहले अक्सर
संसद में मद्ध्यावधि चुनाव की तलवार लटकी रहती थी, और कई बार हुए भी; परन्तु जबसे
माननीयों को सांसद निधि के रूप में मानदेय की व्यवस्था की गई है, मद्ध्यावधि चुनाव
अब बीते समय की बात हो गई है |
पता नहीं क्यों लोग माननीयों की व्यर्थ
आलोचना करने में अपना समय और ऊर्जा व्यतीत करते हैं; जिनका अपना सम्पूर्ण जीवन ही
नहीं, अपितु पूरा परिवार ही राष्ट्र सेवा के लिए समर्पित है, उनके लिए इस प्रकार
की अभद्र टिप्पड़ी सुन कर बहुत कष्ट होता है, कि ये बहुत ही निर्लज्ज होते हैं,
जिनका नाम बैंक धोखाधड़ी में आय हो या सैनिक सामान की दलाली में आया हो ऐसे लोगों
को भी भारत रत्न से अलंकृत कर दिया जाता है ; अब इन अल्प बुद्धि लोगों को कौन
समझाए कि यह पुरस्कार है ही मुख्यरूप से इन माननीयों के लिए था, जन सामान्य के लिए
नहीं, क्योंकि जिसे आप दूषण कह रहे हैं, वह माननीयों का आभूषण है; जैसे गंगा के जल
में कितने भी गंदे नाले मिल जाएं गंगा पवित्र और पतित-पावन ही रहती है, उसी प्रकार
जितनी भी सांसारिक बुराइयां और विकार हैं उन सबको अपने में आत्मसात करते हुए भी ये
माननीय निर्लिप्त, सत्य सनातन शिव तत्व हैं, इसी लिए तो भारत रत्न हैं |