Tuesday, November 26, 2013

तहलका


१६ मई २००८ को जिस १४ वर्षीय नाबालिग बालिका आरुषी एवं एक नौकर हेमराज की हत्या की गई थी, जिसने पूरे देश में एक तहलका मचा दिया था। दिनांक २५ नवम्बर २०१३ को न्यायालय का निर्णय आगया है, जिसमें आरुषी के माता-पिता ‘नूपुर’ एवं राजेश तलवार को दोषी पाया गया है।  आखिर ऐसा क्या हुआ कि एक माता-पिता को अपने ही कलेजे के टुकड़े की हत्या करनी पडी। जांच से पता चला कि १५ मई २००८ की रात्रि में इस नाबालिक पुत्री को अपने नौकर हेमराज के साथ अत्यधिक आपत्ति जनक स्थिति में देखा था और वे अपने ऊपर संयम नहीं रख सके। एक बात निश्चित है कि यह योनाचार आपसी सहमति से हो रहा था। प्रश्न उठता है कि क्या इस नाबालिक बालिका के साथ सहमति से हो रहे यौनाचार को सहजरूप में लेना चाहिए था? तलवार दंपत्ति धन कमाने और आधुनिकता की दौड़ में कुछ इस प्रकार संलिप्त हुए कि अपनी बच्ची से ध्यान हटा बैठे और नौकर पर अति विश्वास कर लिया। स्त्री स्वातन्त्रके हिमायती संभवतः इसमें कुछ भी बुरा न माने परन्तु आधुनिक जीवन यापन करने वाले तलवार दंपत्ति अन्तःकरण से पुरातन भारतीय परम्परा के हिमायती थे जो पुत्री के कुंवारेपन पर आई आंच को सह नहीं पाए और अपराध कर बैठे। आज इस राष्ट्र के प्रत्येक महत्वपूर्ण संस्था में और दैनिक जीवन में जो यौन उत्पीडन की घटनाएं सुनाई देतीं हैं उसके मूल में यह दोहरे मापदंडों में जी रहे लोगों की दुविधा का परिणाम दिखता है। एक ओर हमारे अंतःकरण में पुरातन मान्यता कूट कूट कर भरी हुई है जिसमें नारी को अति पवित्र माना गया था और उसकी काया को कुत्सित भाव से कोई नहीं छू सकता था। नारी काया पर मात्र उसके पति का ही अधिकार होता था। अपनी उस काया को आततायी से बचाने और अपने सतीत्व की रक्षा के लिए यहाँ की वीरांगनाएँ जौहर करके स्वयं को जीवित जला देती थीं। यहाँ ‘यत्र नार्यस्तु पूजन्ते रमन्ते तत्र देवता’ का भाव रखते हुए नारी को माता और बहन के रूप में देखने की पवित्र परम्परा रही है, इसीलिये यहाँ के समाज में आदर्श रूप में भगवती सीता, माता अनुसुइया और महान सती सावित्री जैसी विभूतियाँ रही हैं। नारी को पूज्या और शक्ति का प्रतीक माना गया उसे कभी भी भोग्य नहीं माना गया, यद्यपि इस पुरुष प्रधान समाज में कुछ मध्यकालीन कवियों ने अपनी कृति में अनावृत नारी सौन्दर्य का नखशिख कामुक वर्णन किया है और उसमें विद्वानों को सौन्दर्य बोध भी होता है उसी प्रकार प्रसिद्ध चित्रकार मक़बूलफ़िदा हुसैन को भी निर्वस्त्र नारी कलेवर की चित्रकारी में ही सौन्दर्य दिखता था। इनलोगों को यह सौन्दर्य बोध निर्वस्त्र पुरुष में क्यों नहीं दिखा? इतना सब होने पर भी उस काल में संचार माध्यम इतने सशक्त न होने से यह गंदगी जन जन तक नहीं फ़ैल सकी और बच्चे बचपन से अपनी दादी-नानी द्वारा महान सतियों की कहानी सुनकर स्त्री जातिके प्रति अलौकिक सम्मान और श्रद्धा भाव से संस्कारित होते रहते थे, उन्हें राम का एक पत्नीवृत्त, शिवाजी का नारी जाति के प्रति आदरभाव और इसी प्रकार की विभिन्न ऐतिहासिक-पौराणिक कथाएँ जिनमें नारी रक्षा के लिए प्राणोत्सर्ग तक करने की घटनाएं रहती थीं सुनने और पढने को मिलती थीं। नारी-पुरुष का आपसी आकर्षण प्राकृतिक और स्वाभाविक है परन्तु वह किस प्रकार का संयमित हो यह देखने को मिलता है जब भगवान् राम भगवती सीता को प्रथम बार पुष्प बाटिका में देखते है और मोहित होते हैं परन्तु छोटे भाई के साथ होने से तत्काल स्वयं को सम्हालते हैं और कहते हैं ‘राघुवन्शिंह कर सहज सुभाऊ, मन कुपंथ पग धरहि न काऊ ‘ यही भाव संस्कारों द्वारा हमारे अंतःकरण में बहुत गहरे तक समाया हुआ है और दूसरी ओर हम अन्य संस्कृतियों का अनुँकरण कर नारी को भोग्या और सहज उपलब्ध मानते हैं जहां एक हेलो हाय के पश्चात कोई न कोई बाला सहज रूप से डेट पर आपके साथ हो लेती है और थोड़ा सा धन व्यय कर सहमति से उसके साथ मनमानी करते हैं, जिसका परिणाम है कि उन संस्कृतियों में शायदही कोई बालिका युवावस्था पूर्व यौनानुभाव से बचती हो और बहुत बड़े परिणाम में १३ वर्ष तक की बालिकाएं गर्भ धारण कर लेती हैं। 
आज हम बाह्य रूप में तो आधुनिकता और आधुनिक प्रगति की दौड़ में सम्मिल्लित हो गए हैं परन्तु अंतःकरण से उन्ही पुराने संस्कारों में जकड़े हुए हैं। दिखावे के रूप में बच्चों को पूर्ण और अनावश्यक स्वतंत्रता प्रदान करते हैं, उनकी निजता का ध्यान रखते हुए अलग कमरा, एकांत में कहीं भी अपने मित्रों से मिलने की छूट प्रदान करते हैं और उसी का परिणाम आज समाज के प्रत्येक क्षेत्र में बढ़ते दिख रहे यौन अपराध हैं, फिर चाहे वह धर्म का क्षेत्र हो, न्याय का क्षेत्र हो, राजनीति का या मीडिया का, चाहे आशाराम हों, तहलका के तरुण तेजपाल, पूर्व जज या राजनेता एक बात इन सभी में सामान्य है कि जिन युवतियों का यौन उत्पीडन इनके द्वारा हुआ वह बन्दूक या चाकू की नोक पर नहीं हुआ, उस यौन अपराध में युवतियों की इस अनाचार को सहने के पीछे कुछ पाने की लालसा थी। कहीं मोक्ष तो कहीं पदोन्नति, नौकरी या ख्याति और धन। पुरुष को परमात्मा से शारीरक संरचना में ऐसा वरदान मिला है कि उसकी इक्षा के विरुद्ध उसके साथ यौनाचार नहीं हो सकता जबकि स्त्री इतनी भाग्यशाली नहीं है, ऐसे में नारी को अपनी अस्मिता बचाने के लिए स्वयं सतर्क रहना ही पड़ेगा. क्या आज नारी अपनी स्वतंत्रता के नाम पर निज उत्तेजनात्मक कायावयवों को प्रदर्शित करने वाले परिधान धारण नहीं करती? आज स्त्रियों के प्रति बढ़ते अपराधों के लिए आज का परिवेष और स्त्री स्वयं उत्तरदायी है। यदि स्त्री चाहती है कि समाज उसमें अपनी माँ, बहन और अच्छे मित्र की छवि देखे तो उसे अपने आचरण को गरिमापूर्ण बनाना होगा और समाज के समक्ष उसी रूप में प्रस्तुत करना होगा। आज सिनेमा और बुद्धू बक्सा समाज और बच्चों को सर्वाधिक प्रवाभित करने वाले साधन हैं जिनके द्वारा आज हम बच्चे को बचपन से स्त्री को किस रूप में दिखा रहे हैं? आज के इस औद्योगिक और विज्ञापन के बाजारू युग में यदि सर्वाधिक विज्ञापन किसी का हुआ है तो वह नारी है, किसी भी उत्पाद का विज्ञापन हो बगैर स्त्री के पूरा नहीं होता। चाहे वाहन का विज्ञापन हो, पुरुष परिधान का या सेविंग क्रीम का विज्ञापन हर विज्ञापन में स्त्री का विद्रूप स्वरूप ही सामने आता है। एक परफ्यूम के विज्ञापन में जिस प्रकार अर्धनग्न उत्तेजनात्मक रूप में कई बालाएं पुरुष के चारों ओर लिपट जाती हैं, इसी प्रकार स्वास्थ्य वर्धक औषधि के विज्ञापन में पुरुष की बलिष्ठ काया को जिस वासनात्मक रूप में निहारती है ये स्त्री की गरिमा को बाजारू बना देती है और बचपन से बच्चे के मष्तिष्क में नारी माँ-बहन के रूप में न होकर एक उत्पाद के साथ सहज और मुफ्त में उपलब्द्ध बाजारू औरत के रूप में व्याप्त हो जाती है। इन विज्ञापनों के लिए इन बालिकाओं को बन्दूक की नोंक पर विवश नहीं किया जाता है। आज के इन अपराधों के लिए केवल पुरुष समाज को और कानून को कोसने वाले नारी संघटनों को सोचना पड़ेगा और उसे बाजारू छवि से मुक्त करना होगा अन्यथा कितने भी कड़े क़ानून बनालें और बहस करलें ये अपराध तब तक समाप्त नहीं होंगे जब तक लडकी सहज रूप से डेट के नाम पर एक प्याला मदिरा और एक बर्गर में उपलब्ध न हो जाए. आज हमारे आदर्श बदल गए हैं, सीता सावित्री के स्थान पर आज हमारे आदर्श वो सिनेमा तारिकाएँ हैं जो विवाह पूर्व तीन-चार पुरुषों के साथ लम्बे समय तक अन्तरंग रूप से रह चुकी हैं, छोटे छोटे बच्चे ‘चोली के पीछे क्या है’ ? ढूँढने में लगे हैं फिर समाज को इसके परिणाम तो भोगने ही पड़ेंगे.
आज हर प्रकार के बढ़ते अपराधों के पीछे मदिरा के चलन का भी बहुत बड़ा हाथ है. पाश्चात्य संस्कृति का अन्धानुकरण करते हुए अभिजात्य वर्ग में इसका चलन बहुत अधिक बढ़ गया है. कोई भी अवसर हो, उत्सव या आवश्यक मंत्रणा बैठक बगैर मदिरा के पूर्ण नहीं होती. यह वर्ग विद्वान् और धनवान है अतएव इसके पक्ष में अकाट्य तर्क भी प्रस्तुत करने में पीछे नहीं रहता है. जबकि मदिरा पान की स्थिति में गाडी चलाना अपराध है तब मदिरा पान करके कोई सार्थक निर्णय लेना कैसे सही है? मदिरा पान आज अनावश्यक स्टेटस सिम्बल बन गया है. तहलका के तरुण तेजपाल ने कहा लडकी के साथ जो हुआ वह मदिरा के नशे में हुआ. जब सब जानते हैं तब मदिरा छोड़ क्यों नहीं देते. इस मदिरा के कारण उस तेजपाल को जिसने कभी अपनी खोजी पत्रकारिता से तहलका मचा दिया था पूरे विश्व के सामने न केवल लज्जित होना पड़ा हो सकता है जेल भी जाना पड़े .

यदि वास्तव में हम समाज में स्त्रियों के प्रति नित्यप्रति बढ़ते अपराधों को रोकना चाहते है तो इस आधुनिकता की अंधी दौड़ से हट कर बच्चों को प्रारम्भ से उच्च संस्कारों से संस्कारित करना होगा और नारी को सौम्य एवं गरिमामय रूप में प्रस्तुत करना होगा . भारत की संस्कृति भिन्न हैं यहाँ की बालाएं योग्य, मेघावी और आत्मसम्मान की रक्षा करने में समर्थ हैं. आज वे जीवन के हर क्षेत्र में बढ़-चढ़ कर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर रहीं हैं; ऐसे में महिला संघठनों को तत्काल उन सभी विज्ञापनों पर जिनमें उनकी गरिमा को गिराया जाता है न केवल प्रतिबंध लगवाना होगा अपितु कठोर दंड का भी प्राविधान करना होगा, इसी प्रकार नारी सौन्दर्य के नग्न प्रदर्शन वाले आईटम गीतों और दृश्यों को फिल्माने और दिखाने पर रोक लगानी होगी क्योकि महिला के साथ अभद्र व्यवहार के लिए केवल कठोर क़ानून से काम नहीं बनेगा पुरुषों और समाज को नारी के गरिमामय रूप के दर्शन फिर से कराने होंगे और उनके दिल में श्रद्धा और सम्मान का भाव संस्कारित करना होगा .

Thursday, September 26, 2013

नागरवाला से वाहनवती तक

                 नागरवाला से वाहनवती तक एक लम्बा समय व्यतीत हो चुका है। केवल नाम बदले हैं शेष सब कुछ वैसा ही है। सुना था इतिहास अपने आप को दोहराता है; लेकिन इतनी शीघ्र दोहराएगा अपेक्षा नहीं थी। २१ मई १९७१ को सोनिया गांधी की सास और भारत की प्रधानमंत्री श्रीमती इन्द्रागांधी की आवाज में एक फ़ोन स्टेट बैंक के पार्लियामेंट स्ट्रीट शाखा के वरिष्ठ कैशिअर वेदप्रकाश महरोत्रा के पास आता है कि मैं रुश्तम सोहराब नागरवाला को भेज रही हूँ उसे अविलम्ब ६० लाख रु दे दें। नागरवाला रा. में कप्तान थे और इन्द्रागांधी के विशवास पात्र थे। नागरवाला बैंक पहुंचे और फ़ोन के अनुसार उनको ६० लाख रु दे दिए गए, और वे वह रु लेकर निकल गए। जब महरोत्रा प्रधानमंत्री कार्यालय से ६० लाख रु की रसीद लेने पहुंचे तो बताया गया इन्द्राजी ने कोई रुपया नहीं मंगाया था। कैशिअर के पैरों तले जमीन खिसक गई, उसने पुलिश थाने में प्रथिमिकी दर्ज करवाई, पुलिश तत्काल हरकत में आई और उसी दिन नागरवाला को बंदी बना लिया गया और लगभग पूरा धन बरामद हो गया। न्यायालय में महरोत्रा और नागरवाला ने आश्चर्यजनक रूप से अपना अपराध मान लिया और अति तत्परता से मात्र १० मिनट में ही न्यायालय की सुनवाई समाप्त हो गई और नागरवाला को चार वर्ष का करावाष का दंड दे दिया गया, न तो कैशिअर से पूछा गया कि उसने इतनी बड़ी धनराशि बगैर किसी रषीद के या लिखित आदेश के क्यों दे दी और न ही यह पता किया गया कि नागरवाला इन्द्राजी की आवाज निकाल भी सकता है या नहीं। नागरवाला ने अपराध स्वीकार किया और उसे सही मानकर दण्डित कर दिया गया, इतना ही नहीं बाद में जब नागरवाला ने कुछ कहने की इक्षा व्यक्त की तो संदिग्ध परिस्थितियों में उसकी मृत्यु हो गई और इस सम्पूर्ण घटना की जांच के लिए नियुक्त जांच अधिकारी डी.के. कश्यप की भी संदिग्ध तरीके से कार दुर्घटना में मृत्यु हो गई अब किसका सहस था जो जांच करके वास्तविकता को सामने ला पाता और वही हुआ वास्तविक सच कभी सामने नहीं आया।  (http://archive.tehelka.com/story_main34.asp?filename=Ne201007TheNAGARWALA.asp)
                        यह मात्र एक संयोग है या कुछ और कि गांधी परिवार की और देश की शसक्त महिला (इन्द्रागांधी की बहु) सोनिया गाँधी की  की आवाज में अभी ५ सितम्बर २०१३ को एक फोन भारत के महाधिवक्ता (एटार्नी जनरल ) जी. ई. वाहनवती को न्यूयार्क से आया और उन्हें निर्देश दिया गया कि कोयला घोटाले से सम्बंधित मामले में न्यायालय में बहुत तत्परता न दिखाएँ और इस केस की गति को धीमा रखें, जरूरत से  अधिक कर्मठ बनने की आवश्यकता नहीं है। जितना कहा जा रहा है उतना करें वर्ना अपना पद छोड़ दें। ध्यान रहे कि उस समय सोनियाजी न्यूयार्क में अपना इलाज कराने गई हुई थीं। वाहनवती यदि बात मान लेते और अपना पद छोड़ देते या इस केस की सुनवाई में शिथिलता वर्तते तो कोई बात ही नहीं उठती ; परन्तु उन्होंने इस फोन काल के विषय में बता दिया और बात बिगड़ गई अब फर्जी काल के लिए किसी को तो बलि का बकरा बनाया ही जाएगा, आखिर मामला सीधा गांधी परिवार से जुड़ा है। उपरोक्त  दोनों फोन कालों में समानता है दोनों गांधी परिवार से सम्बंधित हैं, दोनों घोटालों से सम्बंधित हैं। कांग्रेस का पुराना इतिहास रहा है कि वह अपने अपराधों को छिपाने में और अपने अपराधी लोगों को बचाने में सिद्ध हस्त है, फिर चाहे नागरवाला कांड हो, बोफोर्स दलाली कांड हो, कोयला घोटाला हो या आदर्श घोटाले सहित अनेकानेक घोटालों के दोषियों को बचाया गया है। चाहे १९८४ के दंगों में लगभग २७०० सिखों की हत्या के दोषी भगत हों, जगदीश टाइटलर हों या सज्जन कुमार और बात जब गांधी परिवार से सम्बंधित हो तो चाहे बाड्रा का जमीन घोटाला हो या ३ दिसंबर २००६ को अमेठी में राहुल गांधी और उनके दोस्तों द्वारा  २४ वर्ष की लडकी सुकन्या से किया गया सामूहिक बलात्कार का मामला हो पूरी पार्टी बेशर्मी के साथ बचाव में आजाती है।(http://shashi-dubey.blogspot.in/2013/03/rahul-gandhi-involved-in-rape.html) जिस प्रकार अपराधी जनप्रतिनिधियों के विरुद्ध न्यायालय के आदेश को अंगूठा दिखा कर अध्यादेश पारित करके अपने दल के राशिद मसूद सहित तमाम अपराधियों को बचाने का षड्यंत्र किया जा रहा है, वह इस दल की सहज अपराधी मानसिकता और व्यवहार को समझने के लिया पर्याप्त है। 

Saturday, September 14, 2013

मुज़फ्फर नगर में प्रायोजित नर संघार

        पिछले दिनों मुज़फ्फर नगर में  कुछ हुआ वह बहुत ही दुखद और पीड़ा दायक था। प्रश्न उठता है कि जो कुछ हुआ क्या अचानक हुआ या पूर्व नियोजित था ? तथ्यों को देखने पर प्रतीत होता है यह पिछले कई महीनों से मुज़फ्फर नगर में चल रहा था; एक विशेष समुदाय के लोगों द्वारा बहु संख्यक समुदाय की बहू बेटियों के साथ निरंतर छेड़ छाड़ और बलात्कार की घटनाएं हो रहीं थीं; परन्तु प्रशासन आँखें बंद किये बैठा रहा। कुछ घटनाएं बलात्कार की जो प्रकाश में आईं, दिसंबर २१, २४, २९, ३०/२०१२ को १८ फरवरी २०१३ को, ३ अप्रैल, ३ जून २०१३ को, जुलाई ८ एवं २९ को, फिर अगस्त २३, २४ एवं २७ को (http://indiawires.com/25917/news/national/series-of-rapes-behind-muzaffarnagar-riots/) आखिर एक समुदाय को कब तक दुसरे समुदाय के अत्याचारों को सहन करना चाहिए था, क्या उनकी बहन बेटियों की इज्जत लुटती रहे और वे दर्शक बन कर देखते रहें या प्रतिकार करें। इतनी दर्दनाक घटनाओं के बाद भी प्रशासन  की निद्रा नहीं टूट रही थी और लोगों में अशंतोष तथा गुस्सा बढ़ता जा रहा था। कायदे से प्रशासन को चाहिए था कि अपराधी की धर्म जाति का विचार किये बगैर, वे  तत्काल पकडे जाते और पीड़ितों को स्वान्तना देनी चाहिए थी; परन्तु अधिकारी ऐसा कैसे करते, दुर्गाशक्ति नागपाल का उदहारण उनके सामने था। ऐसे में  एक दिन तो लावे को  फूटना ही था, २७ अगस्त को कवल गाँव में एक छेड़ छाड़ की घटना का विरोध करने पर हिंसा प्रारम्भ हो गई जिसमें तीन लोगों की म्रत्यु हुई, जिसमें छेड़ छाड़ करने वाला मुसलमान युवक सहनवाज़ कुरेषी था और जाट लडकी के दो भाई सचिन और गौरव सिंह थे; परन्तु पुलिष ने छेड़ छाड़ और जाट युवकों की ह्त्या को संज्ञान में ना लेकर, केवल मुसलमान युवक को मारने के अपराध में पीड़ित लडकी के परिवार वालों को ही बंदी बना लिया था ( http://en.wikipedia.org/wiki/2013_Muzaffarnagar_riots) प्रशासन पूरी तरह अल्पसंख्यक समुदाय के साथ था। हालात कश्मीर घाटी जैसे बनाए जा रहे थे, जहां कश्मीरी पंडितों की बहु बेटियों के साथ मुस्लिम आतंकवादी सरेआम बलात्कार करते थे और प्रशासन कुछ नहीं सुनता था, अंत में वे वहां से भागने को विवश हुए और घाटी हिन्दू विहीन हो गई; ठीक वही हालात समाजवादी पार्टी द्वारा मुज़फ्फरनगर में उत्पन्न किये जा रहे थे, आखिर समाजवादी पार्टी को मुसलमानों के वोट चाहिए थे। 
              इस घटना के विरोध में जाटों ने २८ अगस्त को पंचायत करने का निश्चय किया जिसे क़ानून व्यवस्था का उल्लेख कर प्रशासन ने रोक दिया और जाटों ने क़ानून का साथ देते हुए पंचायत टाल दी; परन्तु दूसरी ओर ३० अगस्त शुक्रवार को नमाज के बाद मुसलामानों की एक बड़ी पंचायत हुई जिसमें विभिन्न राजनैतिक दलों के नेताओं ने बहुसंख्यक समुदाय के विरुद्ध भड़काऊ भाषण दिए, इन नेताओं में समाजवादी पार्टी के राशिद सिद्दीकी, बी.एस.पी. के क़दीर राणा और नूर सलीम राणा तथा कांग्रेस के सैद्दुज्जाम प्रमुख थे। इतना ही नहीं वहां प्रशासनिक अधिकारी भी उपस्थित थे। क्या केवल दो दिन बाद क़ानून व्यवस्था सुधर गई थी? क्या यह खुले तौर पर सरकार द्वारा एक पक्षीय व्यवहार नहीं था? फिर ३१ अगस्त को जाटों की पंचायत हुई; परन्तु पंचायत से वापस जाते हुए खातिमा रोड पर एक परिवार की कार पर हमला करके उनकी कार जला दी गई, परन्तु सरकार अभी भी निश्चिन्त थी। निश्चित यह सब कुछ किसी भी समुदाय के लिए सहन शक्ति की पराकाष्ठा थी। जाटों द्वारा बहु बेटी बचाओ अभियान के अंतर्गत ७ सितम्बर शनिवार को एक बड़ी पंचायत बुलाई गई। इस पंचायत में निश्चित ही भड़काऊ भाषण होने थे और हुए, पंचायत के बाद जब लोग वापस जा रहे थे तब गंग नहर के किनारे मुसलमान गुंडों ने अचानक आक्रमण कर दिया और तमाम लोगों को मौत के घाट उतार कर नहर में फेंक दिया और उनके ट्रेक्टर भी नहर में फेंक दिए गए, अभी तक १७ ट्रेक्टर नहर से निकाले जा चुके हैं; चूंकि केवल बहुसंख्यक समाज के लोग मारे जा रहे थे अतएव सरकार और मुसलमान नेता निश्चिन्त थे; परन्तु यह हिंसा की आग अचानक गाँवों में फ़ैल गई और अल्पसंख्यक समुदाय के निर्दोष लोग भी मारे जाने लगे तब सरकार हरकत में आई, लेकिन राजनैतिक दलों का काम हो चुका था, वोटों का ध्रुवीकरण हो चुका था, समाज में वैमनस्य बढ़ चुका था। 
              इस सबसे एक बात निश्चित है कि साम्प्रदायिक दंगे तभी होते हैं जब सरकारों द्वारा किसी एक समुदाय के साथ पक्षपात पूर्ण व्यवहार किया जाता है। जब देश का प्रधानमंत्री ही बेशर्मी के साथ कहता हो कि इस देश के संसाधनों पर पहला अधिकार मुसलमानों का है तब दंगे और वैमनस्यता कैसे रोकी जा सकती है? एक बात और निश्चित है कि दंगे की पहल भी कभी बहुसंख्यक समुदाय द्वारा नहीं की जाती है, वह तो पानी सर से ऊपर निकल जाने के बाद केवल प्रतिकार करता है। चाहे वह गुजरात हो (जहां पहले २७ फरवरी २००२ को गोधरा में एक रेल के डब्बे के ५८ यात्रियों को जो हिन्दू थे मुसलमान गुंडों ने ज़िंदा जला दिया था ) या मुजफ्फरनगर हो। हाँ हिन्दुओं के मरने पर कोई हो हल्ला नहीं मचता, किसी को अपराधबोध नहीं होता फिर चाहे गोधरा में मारे गए हिन्दू हों या मुजफ्फरनगर में या कश्मीर घाटी में या १९८४ के दंगों में २७०० सिक्ख क़त्ल कर दिए गए हों; परन्तु अल्पसंख्यकों की म्रत्यु पर सालों साल मातम मनाया जाता है। जबकि मौत किसी की भी हो पीड़ादायक है और हर मृत्यु पर सरकार सहित सभी को पूरी तरह संवेदनशील होना चाहिए।  किसी भी सरकार के लिए धर्म या जाति के आधार पर किसी भी प्रकार का पक्षपात उस देश के लिए सदा घातक है और कभी भाईचार नहीं बन सकेगा। अपराधी केवल अपराधी होता है उसका कोई धर्म या जाति नहीं होती जिस दिन ये सरकारें और नेता इस बात को समझ लेंगे उस दिन तमाम समस्याओं का अपने आप निदान हो जाएगा।  
                  उपरोक्त सभी बातें १७ सितम्बर को आजतक चेनल और इंडिया टुडे द्वारा दिखाए गए वीडियो द्वारा सिद्ध हो गई है। मुज़फ्फरनगर में कोई हिन्दू-मुस्लिम दंगा ना होकर सपा के आजमखान के गुंडों द्वारा केवल हिन्दुओं का नरसंघार कर राजनैतिक लाभ लेने की योजना थी और पश्चिम उत्तरप्रदेश के मुस्लिम बाहुल जिलों से हिन्दू परिवारों को पलायन करने पर विवश करना है, जिसमें कांग्रेस बराबर की सहयोगी है क्यों कि भारत का प्रधानमन्त्री केवल मुस्लिमों से कैम्पों में मिले और हिन्दू पीड़ितों से केवल सड़क पर ही मिल लिए। २००२ के लिए रात-दिन आंसू बहाने वाले न्यूज चैनल और धर्मनिर्पेक्ष तीस्ता सीतलवाड़ और आम आदमी पार्टी के लोग अब चुप क्यों हैं?

Tuesday, August 27, 2013

अपराधी तंत्र या संत

         आज कल एक समाचार सर्वाधिक चर्चा में है 'पूज्य संत आशाराम बापू द्वारा एक नाबालिग लड़की से बलात्कार ' आप अपने टी वी के किसी समाचार चैनल पर जाएं पिछले एक सप्ताह से चौबीस घंटे यही एक समाचार दिखाया जा रहा है आखिर दर्शक बढाने की होड़ जो लगी है। आज सभी राष्ट्रिय अंतर्राष्ट्रीय समाचार इस एक समाचार के सामने बौने हो गए है। अपराध सिद्ध होगा या नहीं होगा यह तो समय बताएगा परन्तु भारतीय मीडिया ने उन्हें बलात्कारी घोषित ही कर दिया है। संत आशारामजी के करोड़ों अनुयाई और शिष्य है बगैर आरोप निश्चित या सिद्ध हुए उन पर इस प्रकार का बर्बर आरोप लगा करसबकी नजरों में उनका मान गिराने का क्या औचित्य है , यदि आरोप निश्चित या सिद्ध नहीं हुए तो उनके सम्मान की जो अपूर्णीय छति हो रही है उसकी भरपाई कौन करेगा। क्या इस अपराध के लिए इन चैनलों पर कार्यवाही की जाएगी? क्या यह कोई षड्यंत्र नहीं हो सकता है ? क्या इस घ्रडित कार्य के लिए शासन द्वारा या उसके संकेत पर उन्हें बदनाम करने का कार्य नहीं किया जा रहा है ? यह सर्व विदित है कि आशारामजी अपने प्रवचनों में कई बार भ्रष्ट तंत्र के विरुद्ध आक्रामक हो जाते हैं और भारत में कहने को तो प्रजा तंत्र है परन्तु वास्तव में राजतंत्र ही है। विशेष रूप से उन राजनैतिक दलों की सरकारों के विरुद्ध बोलना जो एक वंश या एक व्यक्ति की धरोहर हैं। केंद्र की कांग्रेस सरकार कहने को तो एक परिवार की पार्टी की सरकार नही है ; परन्तु यह सर्वज्ञ है कि इन्द्राजी के समय से यह एक ही परिवार की पार्टी बनकर रह गई है और उस दल की सरकार के विरुद्ध बोलने का परिणाम क्या हो सकता है ? रामदेवजी से अधिक कौन जान सकता है ? यदि आशारामजी ने इस प्रकार का जघन्य कृत्य किया है तो उन्हें कठोर से कठोर दंड दिया जाना चाहिए। व्यक्ति कितना भी महान हो कितना भी सचरित्र हो उससे अपराध हो सकता है और यदि अपराध हुआ है तो वह केवल और केवल अपराधी है और उसे कठोर दण्ड मिलना ही चाहिए लेकिन वह सबके लिए सामान होना चाहिए, चाहे फिर वह संत हो, जनप्रतिनिधि हो, सामान्य व्यक्ति हो, प्रभावशाली बाहुबली हो, हिन्दू हो, मुसलमान हो, मंत्री हो या संत्री हो ।  व्यक्ति के आचरण में गिरावट के लिए एक छण चाहिए , अपराध मानसिक और दिमागी कमजोरी से होता है। वह किसी में कभी भी आ सकती है। विश्वामित्र जैसे महान तपस्वी भी एक छण में पथभ्रष्ट हो गए थे। 
           उपरोक्त विषय में पुलिस  की अति तत्परता और आश्चर्य चिकत कर देने वाली कार्यवाही के कारण षड्यंत्र की बू आती है , जो पुलिस थाने के सीमा विवाद के चलते घायल व्यक्ति को घंटों चिकित्सालय नहीं ले जाती और वह घायल मर जाने को विवश हो जाता है, अक्सर पीड़ित व्यक्ति को भगा देती है और उसकी प्राथिमिकी नहीं लिखती जब तक सुविधा शुल्क नहीं दिया जाता या कोई ऊंची सिफारिश नहीं होती । वहीं इस मामले में लडकी छिंदवाडा के छात्रावाष में रहती है ,बलात्कार जोधपुर आश्रम में होता है, बलात्कार के बाद भी वह लडकी तत्काल किसी को कुछ नहीं बताती, माँता-पिता को भी नहीं, इसकी शिकायत भी जोधपुर में पुलिस से नहीं करती। कई दिन पश्चात दिल्ली में शिकायत लिखवाई जाती है और पुलिश तत्काल तत्परता से जाँच में लग जाती है। भारतीय पुलिस  इतनी तत्पर कब से हो गई, यदि वास्तव में इतनी तत्पर यह पुलिस हो जाए तो भारत से अपराध समाप्त होने में समय नहीं लगेगा। कल दिनांक २६ को सभी चैनलों पर बार बार दिखाया गया कि आशारामजी के ऊपर से बलात्कार की धारा हटा ली गई क्यों? यदि बलात्कार हुआ था तो धारा क्यों हटाई गई और नहीं हुआ था तो धारा क्यों लगाई गई। क्या सब कुछ पुलिस की मर्जी पर है या उच्च स्तरीय षड्यंत्र ?
            ऐसे एक नहीं कई प्रमाण है जब शाषन के अनाचार के विरुद्ध किसी महान से महान व्यक्ति ने कोई आचरण किया है तो उसे गंभीर परिणाम भोगने पड़े है। तमिलनाडु में शंकर नेत्रालय को लेने की इक्छा मुख्यमंत्री जयललिता की अन्तरंग सहेली शशिकला ने व्यक्त की जिसे कांची कामकोठी के शंकराचार्य पूज्य जयेंद्र सरस्वती ने ठुकरा दिया तो उन्हें ११ नवम्बर २००४ को ह्त्या के आरोप में बंदी बना लिया गया। यदि आरोप सही थे तो क्या यह एक संयोग मात्र था या षड्यंत्र ?  
               इसी प्रकार उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के एक मंत्री अमरमणि त्रिपाठी पर एक कवियित्री मधुमिता शुक्ला के साथ यौन सम्बन्ध बनाने और गर्भवती हो जाने पर ९ मई २००३ को उसकी हत्या करने का आरोप लगा तो उनको बचाने के लिए आई.आई.टी. कानपुर  के होनहार छात्र अनुज मिश्रा पर झूठा आरोप मड दिया गया इतना ही नहीं एक पंडित ने उस बच्चे का विवाह मधुमिता से कराने की झूठी गवाही भी दे दी और इसे मीडिया ने खूब चटखारे ले कर दिखाया । दैवयोग से उन तारीखों में वह अनुज अपने साथियों के साथ भ्रमण पर बाहर गया हुआ था और इस कुत्सित षड्यंत्र के विरुद्ध सभी आई.आइ.टी. के छात्र एवं अध्यापक मजबूती से खड़े हो गए इसलिए उस निर्दोष का जीवन बर्बाद होने से बच गया तथा अमरमणि को आजन्म कारावाष हुआ, यदि अनुज बाहर नहीं गया होता तो आज अनुज जेल में होता ।
                फूलन देवी का नाम सभी ने सुना है १४ फरवरी १९८१ को उसने उत्तर प्रदेश के बहमई गाँव में अन्धाधुन्त गोली बरसा कर २२ लोगों को मौत के घाट उतार दिया था। उस अपराध में जब वह जेल में थी तभी १९९४ में  मुलायम सिंह की उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा सभी वाद वापस ले लिए गए और उसे जेल से रिहा कर दिया गया। फूलन देवी १९९६ का समाजवादी पार्टी के टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़ी और सांसद हो गई, तो अपराधों का क्या हुआ? न्याय और कानून कहाँ गया? कोई अपराधी है या नहीं यह सरकार निश्चित करती है न्याय प्रक्रिया नहीं। सरकार की इक्षानुसार साक्ष्य बनाए और मिटाए जाते हैं। 
               केंद्र सरकार के घोटालों, काले धन और दलाली विरुद्ध आवाज उठाने पर अन्ना हजारे पर किस प्रकार जुर्म ढाए गए , रामदेवजी के शांतिपूर्ण आन्दोलन पर लाठी और गोलियां बरसाईं गईं और उन पर तथा उनके साथी बालकृष्ण पर किस प्रकार अनेकानेक आरोप लगा दिए गए। क्या जो सत्ता का साथ दें उन्हें अपराध करने की छूट है ?विरोध करने पर अपराध दिखाई देने लगते हैं। इसी प्रकार अरविन्द केजरीवाल , प्रशांत भूषण, किरण वेदी आदि पर भी अचानक खूब आरोप लगाए गए और इन सभी आरोपों को मीडिया में रात - दिन नमक मिर्च लगा कर खूब दिखाया। 
              परन्तु ३ सितम्बर २००१ में जामां मस्जिद दिल्ली के शाही इमाम सैयद अहमद बुखारी के विरुद्ध लोधी कालोनी दिल्ली में राष्ट्र विरोधी कार्य करने का केस दर्ज हुआ जिसमें न्यायलय से गैर जमानती वारंट तक निकाला गया परन्तु वे न्यायलय के समक्ष उपस्थित नहीं हुए लगभग ११ वर्ष बाद २०१२ में फिर वारंट ही नहीं निकला अपितु उन्हें भगोड़ा भी घोषित कर दिया गया परन्तु वे उपस्थित नहीं हुए। क्या इस समाचार को भी इन बिकाऊ चैनलों ने इस तत्परता से दिखाया ?
                कहीं भारतीय चैनलें हिन्दू विरोधी सरकार के साथ मिल कर सोची समझी निति के तहत हिन्दू संतों उपदेशकों को बदनाम करने के कार्य में तो नहीं लगे हैं। अभी कुछ दिन पूर्व निर्मल बाबा के विरुद्ध ऐसा ही एक अभियान इन समाचार चैनलों द्वारा छेड़ा गया और वह कार्यक्रम थोड़े समय के लिए बंद भी हो गया परन्तु फिर किस प्रकार प्रारम्भ हो गया ? प्रारम्भ ही नहीं हुआ अपितु उन्ही समाचार चैनलों द्वारा दिखाया जा रहा है जिन्होंने इसे ठगी बताया था। 

Monday, August 19, 2013

डूबता रुपया और गिरती शाख

          पहले भारत सोने की चिड़िया कहलाता था, जिसे लूटने के लिए  निरंतर विदेशी आक्रमण हुए और उन्होंने खूब लूटा भी, अंततोगत्वा लगभग १००० वर्ष की दासता और संघर्ष के पश्चात १९४७ में जब भारत स्वतंत्र हुआ तो १ रुपया १ डॉलर के बराबर था ; परन्तु १९४७ के पश्चात् जबसे भारत में देशी सरकार बनी तभी से लूट और भ्रष्टाचार की भी स्वतंत्रता मिल गई और रुपया धीरे धीरे अपनी चमक खोने लगा। डॉलर बढ़ने लगा और रुपया घटने लगा , ज्यों ज्यों काला धन बढ़ने लगा त्यों त्यों रुपए की कीमत घटने लगी।  नेताओं, तस्करों एवं व्यापारियों का गठजोड़ बनने लगा और इस देश का लाखों डॉलर हर वर्ष काले धन के रूप में भारत से बाहर विदेशों में जमा होने लगा परिणाम स्वरूप भारत की संचित पूंजी चोरी चोरी कम होने लगी।  यह कुख्यात गठजोड़ धीरे धीरे कानून से ऊपर उठ गया परिणाम स्वरुप क़ानून का भय समाप्त होने लगा और मंत्री से लेकर संतरी तक सभी सरकारी विभाग घूषखोरी और दलाली में संलिप्त होते चले गए, काला धन बढ़ता चला गया और फिर हर वर्ष करोड़ों डॉलर का धन या सोना चांदी बैंक लाकरों में बंद होने लगा, इस संचित धन की पूर्ती के लिए नए नए कर लगते चले गए ; परन्तु चोरी और काला धन इतना अधिक बढ़ रहा था कि रूपए का अवमूल्यन होता चला गया। अपराधियों और कालाबाजारियों ने देखा कि चुनाव लड़कर नेता बनने पर कानून का कोई भय नहीं रहता तो ये लोग  स्वयं चुनाव लड़कर संसद और विधान सभाओं में पहुँचने लगे। जहाँ पहले नेता अपराधियों को संरक्षण देते थे अब अपराधी ही देश के कर्णधार होने लगे और इस प्रकार  जनतंत्र के मंदिर अपराधियों के सुरक्षित अड्डे बन गए जहाँ से सीधे दलाली,तस्करी , डकैती, फिरौती, हत्या जैसे जघन्य अपराध होने लगे और इन नेताओं की सम्पन्नता बढ़ती गई जिसके कारण लाखों करोड़ डालर हर वर्ष या तो बहार चले गए या बैंक लाकरों में बंद होने लगे। देश में घुन लग चुका था जो शनै: शनै: रुपए को चाटने लगा और इस देश की छवि एक महा भ्रष्ट देश के रूप में विश्व पटल पर उभरने लगी। पूरे संसार में यहाँ के लोगों को हिकारत की नज़र से देखा जाने लगा रूपए के साथ यह राष्ट्र भी अपनी गरिमा खोने लगा। 
             इस दलाली और चोरी का इन नेताओं को ऐसा चस्का लगा कि अधिकाँश मंत्री लाखों करोड़ की दलाली और चोरी के आरोपों में घिर गए और तो और सर्वाधिक सम्मानित और गरिमामय प्रधानमंत्री का पद भी इस कालिख से मुक्त नहीं रह सका।  खेल हों,रेल हो,सैनिक साज सामान हो,कोयला हो, रेत हो, गरीबों का अनाज हो, स्टाम्प पेपर हों, चीनी हो यूरिया हो हर जगह चोरी बढ़ती गई क़ानून और दंड का भय समाप्त हो चुका  है, हया और शर्म तो कब की मर गई न्यायालय के अंकुश को भी उखाड़ फेंका। त्रस्त जनता के शांतीपूर्ण आन्दोलन को लाठी और बन्दूक से दबा दिया(अन्ना हजारे और रामदेवजी के आन्दोलनों का हश्र जग जाहिर है) और बिल्कुल निरंकुश होकर लूट चालू कर दी। यह स्वयं तक सीमित नहीं रहा जनता को भी अपने रंग में रंगने का प्रयास किया गया। 
             जनता की गाढ़ी कमाई को मुफ्त में लुटाया जाने लगा, सांसद निधि के नाम पर खुली लूट मची , मनरेगा और मद्यान्ह  भोजन द्वारा व्यक्ति को अकर्मण्य बनाया जाने लगा और मुफ्तखोरी की आदत डाली जाने लगी , उद्यमशीलता समाप्त होने लगी, सस्ते अनाज द्वारा और कर्जे माफ करके लोगों में  'यावद जीवेत सुखं जीवेत, ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत' अर्थात कर्ज लो और मौज करो का भाव जागृत किया गया जिससे लोगों में आपराधिक प्रवृत्ति बढी है ; और जो धन मूल सुविधाओं यथा बिजली , पानी, परिवहन आदि पर व्यय होना चाहिए था वह वोट के लिए जनता को घूष देने में व्यय कर दिया , जिससे सत्ता निरंतर बनी रहे और लूट का सिलसिला  निरंतर चलता रहे। यदि मूल सुविधाएँ बढ़ती तो कृषक को खेती का समुचित मूल्य मिलता ,उद्योग धंधे बढ़ते तो रोजगार के अवसर बढ़ते।  हर प्रकार का उत्पाद यहाँ होता तो हर छोटी मोटी उपयोग की वस्तु विदेशी कम्पनियों से नहीं खरीदनी पड़ती और देश का पैसा देश में रहता। क्या हम शरबत,साबुन, पापड़,चटनी  टी वी ,फ्रिज जैसी चीजें भी बनाने में सक्षम नहीं हैं। मूल सुविधाएं होती तो हमारे उत्पाद सस्ते भी होते जिसे हम निर्यात करके विदेशी मुद्रा कमाते ; परन्तु  फिर नेताओं को लूट का अवसर नहीं मिलता। 
                 अब प्रश्न उठता है कि क्या सरकार को जन कल्याणकारी कार्य नहीं करने  चाहियें ? अवश्य करने चाहियें; परन्तु यहाँ भावना ही गलत है, भावना वोटकी  है, प्रचार की  है, सत्ता की  है, अभी उत्तराखंड त्रासदी पर जो सहायता राशि भेजी गई उसका उद्येश्य सहायता नहीं प्रचार था , इसीलिये जब तक झंडी नहीं दिखाई गई सामग्री नहीं भेजी जा सकी, उस पर बैनर लगाना आवश्यक था भले ही उस देरी में सामान खराब हो गया । रूपए का मूल्य आज भी बिलकुल नहीं गिरा है, संभवतः अब तक अरबों करोड़ डॉलर जो विदेशी बैंकों में जमा है क्यों कि हाल के वर्षों में केवल केंद्र सरकार के जो घोटाले सामने आए उनमें से प्रत्येक कई लाख करोड़ का है, और जो नहीं खुले वह अलग फिर राज्य सरकारों के घोटाले, सरकारी कार्यालयों में हर छोटे बड़े कार्य के लिए दी जाने वाली घूष , दलाली, फिरौती, आदि जघन्य कार्यों से अर्जित अकूत धन वह भी पिछले ६६ वर्षों का। यदि  उसे वापस ले आया जाए और उससे भी अधिक मूल्य का सोना चांदी काले धन के रूप में तिजोरियों में पड़ा है ; यदि यह सब चलन में आजाए तो फिर पहले जैसी स्थिती या उससे अच्छी हो सकती है ; क्यों कि सरकार के आंकड़े और प्रयाष बताते हैं कि यदि विदेशी मुद्रा का आगमन होगा तो रुपए की सेहत सुधरेगी, इसके लिए सरकार यहाँ के छोटे से छोटे धंधे में विदेशी निवेश आमंत्रित करने को आतुर है यदि उपरोक्त धन आ जाए तो इस प्रकार के पागलपन के कार्य नहीं करने पड़ेंगे ; परन्तु यह करेगा कौन ? ऐसा लगता है सर्वाधिक काला धन देश में और विदेशों में इन नेताओं का ही है; तभी तो विदेशों में जमा धन हो या देश का काला धन उसे निकालने के नाम पर सब चुप हो जाते हैं, सबको सांप सूंघ जाता है ।