Monday, August 19, 2013

डूबता रुपया और गिरती शाख

          पहले भारत सोने की चिड़िया कहलाता था, जिसे लूटने के लिए  निरंतर विदेशी आक्रमण हुए और उन्होंने खूब लूटा भी, अंततोगत्वा लगभग १००० वर्ष की दासता और संघर्ष के पश्चात १९४७ में जब भारत स्वतंत्र हुआ तो १ रुपया १ डॉलर के बराबर था ; परन्तु १९४७ के पश्चात् जबसे भारत में देशी सरकार बनी तभी से लूट और भ्रष्टाचार की भी स्वतंत्रता मिल गई और रुपया धीरे धीरे अपनी चमक खोने लगा। डॉलर बढ़ने लगा और रुपया घटने लगा , ज्यों ज्यों काला धन बढ़ने लगा त्यों त्यों रुपए की कीमत घटने लगी।  नेताओं, तस्करों एवं व्यापारियों का गठजोड़ बनने लगा और इस देश का लाखों डॉलर हर वर्ष काले धन के रूप में भारत से बाहर विदेशों में जमा होने लगा परिणाम स्वरूप भारत की संचित पूंजी चोरी चोरी कम होने लगी।  यह कुख्यात गठजोड़ धीरे धीरे कानून से ऊपर उठ गया परिणाम स्वरुप क़ानून का भय समाप्त होने लगा और मंत्री से लेकर संतरी तक सभी सरकारी विभाग घूषखोरी और दलाली में संलिप्त होते चले गए, काला धन बढ़ता चला गया और फिर हर वर्ष करोड़ों डॉलर का धन या सोना चांदी बैंक लाकरों में बंद होने लगा, इस संचित धन की पूर्ती के लिए नए नए कर लगते चले गए ; परन्तु चोरी और काला धन इतना अधिक बढ़ रहा था कि रूपए का अवमूल्यन होता चला गया। अपराधियों और कालाबाजारियों ने देखा कि चुनाव लड़कर नेता बनने पर कानून का कोई भय नहीं रहता तो ये लोग  स्वयं चुनाव लड़कर संसद और विधान सभाओं में पहुँचने लगे। जहाँ पहले नेता अपराधियों को संरक्षण देते थे अब अपराधी ही देश के कर्णधार होने लगे और इस प्रकार  जनतंत्र के मंदिर अपराधियों के सुरक्षित अड्डे बन गए जहाँ से सीधे दलाली,तस्करी , डकैती, फिरौती, हत्या जैसे जघन्य अपराध होने लगे और इन नेताओं की सम्पन्नता बढ़ती गई जिसके कारण लाखों करोड़ डालर हर वर्ष या तो बहार चले गए या बैंक लाकरों में बंद होने लगे। देश में घुन लग चुका था जो शनै: शनै: रुपए को चाटने लगा और इस देश की छवि एक महा भ्रष्ट देश के रूप में विश्व पटल पर उभरने लगी। पूरे संसार में यहाँ के लोगों को हिकारत की नज़र से देखा जाने लगा रूपए के साथ यह राष्ट्र भी अपनी गरिमा खोने लगा। 
             इस दलाली और चोरी का इन नेताओं को ऐसा चस्का लगा कि अधिकाँश मंत्री लाखों करोड़ की दलाली और चोरी के आरोपों में घिर गए और तो और सर्वाधिक सम्मानित और गरिमामय प्रधानमंत्री का पद भी इस कालिख से मुक्त नहीं रह सका।  खेल हों,रेल हो,सैनिक साज सामान हो,कोयला हो, रेत हो, गरीबों का अनाज हो, स्टाम्प पेपर हों, चीनी हो यूरिया हो हर जगह चोरी बढ़ती गई क़ानून और दंड का भय समाप्त हो चुका  है, हया और शर्म तो कब की मर गई न्यायालय के अंकुश को भी उखाड़ फेंका। त्रस्त जनता के शांतीपूर्ण आन्दोलन को लाठी और बन्दूक से दबा दिया(अन्ना हजारे और रामदेवजी के आन्दोलनों का हश्र जग जाहिर है) और बिल्कुल निरंकुश होकर लूट चालू कर दी। यह स्वयं तक सीमित नहीं रहा जनता को भी अपने रंग में रंगने का प्रयास किया गया। 
             जनता की गाढ़ी कमाई को मुफ्त में लुटाया जाने लगा, सांसद निधि के नाम पर खुली लूट मची , मनरेगा और मद्यान्ह  भोजन द्वारा व्यक्ति को अकर्मण्य बनाया जाने लगा और मुफ्तखोरी की आदत डाली जाने लगी , उद्यमशीलता समाप्त होने लगी, सस्ते अनाज द्वारा और कर्जे माफ करके लोगों में  'यावद जीवेत सुखं जीवेत, ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत' अर्थात कर्ज लो और मौज करो का भाव जागृत किया गया जिससे लोगों में आपराधिक प्रवृत्ति बढी है ; और जो धन मूल सुविधाओं यथा बिजली , पानी, परिवहन आदि पर व्यय होना चाहिए था वह वोट के लिए जनता को घूष देने में व्यय कर दिया , जिससे सत्ता निरंतर बनी रहे और लूट का सिलसिला  निरंतर चलता रहे। यदि मूल सुविधाएँ बढ़ती तो कृषक को खेती का समुचित मूल्य मिलता ,उद्योग धंधे बढ़ते तो रोजगार के अवसर बढ़ते।  हर प्रकार का उत्पाद यहाँ होता तो हर छोटी मोटी उपयोग की वस्तु विदेशी कम्पनियों से नहीं खरीदनी पड़ती और देश का पैसा देश में रहता। क्या हम शरबत,साबुन, पापड़,चटनी  टी वी ,फ्रिज जैसी चीजें भी बनाने में सक्षम नहीं हैं। मूल सुविधाएं होती तो हमारे उत्पाद सस्ते भी होते जिसे हम निर्यात करके विदेशी मुद्रा कमाते ; परन्तु  फिर नेताओं को लूट का अवसर नहीं मिलता। 
                 अब प्रश्न उठता है कि क्या सरकार को जन कल्याणकारी कार्य नहीं करने  चाहियें ? अवश्य करने चाहियें; परन्तु यहाँ भावना ही गलत है, भावना वोटकी  है, प्रचार की  है, सत्ता की  है, अभी उत्तराखंड त्रासदी पर जो सहायता राशि भेजी गई उसका उद्येश्य सहायता नहीं प्रचार था , इसीलिये जब तक झंडी नहीं दिखाई गई सामग्री नहीं भेजी जा सकी, उस पर बैनर लगाना आवश्यक था भले ही उस देरी में सामान खराब हो गया । रूपए का मूल्य आज भी बिलकुल नहीं गिरा है, संभवतः अब तक अरबों करोड़ डॉलर जो विदेशी बैंकों में जमा है क्यों कि हाल के वर्षों में केवल केंद्र सरकार के जो घोटाले सामने आए उनमें से प्रत्येक कई लाख करोड़ का है, और जो नहीं खुले वह अलग फिर राज्य सरकारों के घोटाले, सरकारी कार्यालयों में हर छोटे बड़े कार्य के लिए दी जाने वाली घूष , दलाली, फिरौती, आदि जघन्य कार्यों से अर्जित अकूत धन वह भी पिछले ६६ वर्षों का। यदि  उसे वापस ले आया जाए और उससे भी अधिक मूल्य का सोना चांदी काले धन के रूप में तिजोरियों में पड़ा है ; यदि यह सब चलन में आजाए तो फिर पहले जैसी स्थिती या उससे अच्छी हो सकती है ; क्यों कि सरकार के आंकड़े और प्रयाष बताते हैं कि यदि विदेशी मुद्रा का आगमन होगा तो रुपए की सेहत सुधरेगी, इसके लिए सरकार यहाँ के छोटे से छोटे धंधे में विदेशी निवेश आमंत्रित करने को आतुर है यदि उपरोक्त धन आ जाए तो इस प्रकार के पागलपन के कार्य नहीं करने पड़ेंगे ; परन्तु यह करेगा कौन ? ऐसा लगता है सर्वाधिक काला धन देश में और विदेशों में इन नेताओं का ही है; तभी तो विदेशों में जमा धन हो या देश का काला धन उसे निकालने के नाम पर सब चुप हो जाते हैं, सबको सांप सूंघ जाता है । 

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