Thursday, January 7, 2016

अदृष्य


घटना - १
प्रत्येक मनुष्य के जीवन में कभी न कभी ऐसी घटनाएं अवश्य घटती हैं, जिनकी चाहत उसके अन्तःकरण में रहती हैं; परन्तु असम्भव प्रतीत होती हैं और उसके लिए उसका प्रयास भी नगण्य रहता है, ऐसी घटनाओं के होने पर हममें से अनेकों को लगता है कि, इसके पीछे किसी अदृष्य शक्ति का हाथ है, जो हम सबका निरंतर ध्यान रखती है | ऐसी ही कई छोटी-मोटी घटनाएं मेरे स्वयं के जीवन में भी घटी हैं, उनमें से एक का यहाँ उल्लेख कर रहा हूँ |
बात १९९३ की है मैं दूरसंचार विभाग में कानपुर में जूनियर इंजीनियर के पद पर कार्य करता था | विभागीय प्रोन्नति के लिए परीक्षा दी थी और उसमें मैं उत्तीर्ण भी हो गया था, आगे की प्रोन्नति सहायक अभियंता के पद पर होनी थी, और कुछ लोगों की (जो बहुत वरिष्ठ थे) प्रोन्नति सूची आ गई थी, सभी को जहाँ वे कार्यरत थे उस स्थान से दूर कहीं दूसरे नगर में भेजा जा रहा था | मुझे बहुत प्रयाषों के उपरान्त अपने खर्चे पर नौकरी के १३ वर्षों पश्चात कानपुर मिला था | कानपुर में अम्मा-बाबूजी थे, दोनों वृद्ध और अम्मा का स्वास्थ्य निरंतर खराब रहता था, बाबूजी को पार्किन्सन था (यद्यपि हम एक नगर में रहते हुए भी उनसे १५ कि.मी. दूर रहते थे और किसी विपरीत परिस्थिति में सूचना मिलने के १ घंटे उपरान्त ही पहुँच सकते थे), बच्चे ऐसी क्लासों में आ गए थे कि मेरे विचार से उस समय उन्हें मेरे सहारे और मार्ग दर्शन की आवश्यकता थी, अतएव मैं अपनी प्रोन्नति के अवसर को छोड़ने का मन बना रहा था और इसकी चर्चा अपने सहकर्मियों से कर दी थी; पता नहीं कैसे इस बात का पता बाबूजी को लग गया और वे मेरे इस निर्णय से खिन्न तथा रुष्ट हो गए थे; इस बात का पता तब लगा, जब मैं रविवार को उनसे मिलने गया और उन्होंने मुझसे बात नहीं की, बहुत पूछने पर उन्होंने प्रोन्नति छोड़ने का कारण पूछा, मैं अवाक, मैंने बताया कि बच्चों के मार्गदर्शन के लिए मुझे कानपुर में रहना आवश्यक है, और प्रोन्नति में कानपुर छोड़ना निश्चित है | इस पर उन्होंने कटाक्ष करते हुए कहा ‘तुम्हारे साथ एक अच्छी बात है कि तुम्हे भविष्य की जानकारी है, और यह भी जानते हो कि बच्चों का भविष्य तुम्हारे प्रयाषों पर निर्भर है, यह समझलो अवसर हर बार दस्तक नहीं देते हैं |’ मैं सन्न, और प्रोन्नति न छोड़ने का निश्चय कर वापस चला गया |

लगभग एक वर्ष पश्चात मेरे सभी साथियों की प्रोन्नति सूची प्रकाषित हुई, सभी को कानपुर से दूर पोस्टिंग दी गई थी (जबकि उनमें से अधिकाँश के परिचय विभागीय उच्चाधिकारियों, राजनेताओं मंत्रियों आदि से थे और कानपुर पोस्टिंग के लिए सभी ने प्रयास भी किये थे); उस सूची में केवल मेरा नाम नहीं था, मेरी कहीं पहुँच और परिचय भी नहीं था; मुझे लगा किसी कारण से मेरी प्रोन्नति नहीं हुई होगी | लगभग एक माह पश्चात (तब तक सभी कानपुर छोड़कर नए स्थान पर चले गए थे ) अचानक कार्यालय में मेरे उच्चाधिकारी का फ़ोन आया ‘मि. अग्रवाल क्या आपको कानपुर पोस्टिंग चाहिए?’ मैं कुछ समझ नहीं सका, पूछा ‘क्या कानपुर मिल सकता है?’ उन्होंने कहा प्रयाष तो करो, डी.जी.एम्. साहब से बात कर लो | सब कुछ अचानक और अविश्वनीय था, खैर मैंने डी.जी.एम्. से बात की और पूछा कि सर क्या मुझे कानपुर मिल सकता है? उन्होंने कहा, भई हम सबको तो बाहर नहीं भेज सकते, कोई तो काम करने वाला समर्पित व्यक्ति हमें भी चाहिए ( यहाँ यह बताना आवश्यक है कि जिन्हें बाहर भेजा गया था उनमें से अधिकाँश मुझसे अधिक कर्मठ और समर्पित थे), एक प्रार्थना पत्र इस आशय का कि तुम्हे कानपुर में क्यों रखा जाए, तुरंत फैक्स कर दो | यहाँ यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि अगले एक घंटे के अन्दर मेरी प्रोन्नति का पत्र कानपुर के लिए ही मेरे हाथों में था, और अगले दिन मैंने ज्वाइन कर लिया |



घटना - २
बात १९७४ की है सितम्बर का अंतिम रविवार था, उन दिनों में जोशीमठ में (बद्रीनाथ से ४२ कि.मी. पहले) पोस्टेड था, पावस ऋतु समाप्त हो चुकी थी, आकाश साफ़ और मौसम सुहाना था, अभी जाड़ा प्रारम्भ होने में लगभग एक माह का समय शेष था, इन दिनों राते ठंडी और दिन गर्म रहता था | उस दिन भविष्य बद्री जाने का निश्चय हुआ | यहाँ यह बताना आवश्यक है, कि ऐसी पौराणिक मान्यता है, कि जिस दिन विष्णुप्रयाग स्थित जय-विजय पर्वत गिर जाएंगे, और अलखनंदा का मार्ग अवरुद्ध हो जाएगा, उस दिन वर्तमान बद्रीनाथ के स्थान पर भविष्य बद्री प्रारम्भ हो जाएगा | भविष्य बद्री का मार्ग जोशीमठ से मलारी की ओर जाने वाले मार्ग से निकला है | उस दिन प्रातः ८:३० पर मैं, पत्नी और हमारे साथ विभागीय टेक्नीशियन राजकुमार तीनों एक टैक्सी से भविष्य बद्री के लिए निकले, साथ में, मार्ग के लिए भोजन ले लिया गया था | मार्ग में टैक्सी वाले ने पूछा कि हम लम्बे मार्ग से जाना चाहेंगे या छोटे मार्ग से | हमने पूछा कि लम्बा मार्ग कितना लम्बा और छोटा कितना छोटा है, उसने बताया कि लंबा मार्ग लगभग १०-१२ कि.मी. होगा और छोटा ३-४ कि.मी. | हमने छोटे मार्ग से जाने का निश्चय किया, हमने इस बात का ध्यान नहीं दिया था कि छोटा मार्ग निश्चित कठिन चढाई वाला होगा | टैक्सी वाले ने हमें सड़क किनारे एक पगडंडी के समीप छोड़ दिया, जो पहाड़ पर सीधी चढ़ाई पर ले जाती हुई गंतव्य तक जाती थी | यह पगडंडी काफी सकरी थी (जिससे लगता था कि उस मार्ग से लोगों का आव-गमन बहुत कम होता होगा) और उसके दोनों ओर बहुतायात में बिच्छू घाष उगी हुई थी, जिसके छू जाने से खुजली हो जाती है | इस पगडंडी पर हम तीनों एक के पीछे एक (पहले मैं, फिर पत्नी और अंत में राजकुमार) ऊपर की ओर चढने लगे, सहारे देने के लिए मैं, पत्नी का हाथ पकडे हुए था | थोड़ी देर में ही सूर्य की किरणें सीधी सर के ऊपर पड़ने लगी, और निरंतर चढाई के कारण थकान सी अनुभव होने लगी थी; परन्तु उस समय युवावस्था थी, अतएव थकान के पश्चात भी, निरंतर चढाई चढ़ते हुए ११:३० के लगभग २-२.५ कि.मी. चढ़ चुके थे, बीच बीच में चीड के घने वृक्ष मिलते थे जिनसे थोड़ी धूप रुकती थी | एक स्थान पर अचानक ४-५ पगडंडीयाँ अलग अलग दिशाओं के लिए छंट गईं थीं | चारों और सन्नाटा था दूर दूर तक कोई दिखाई नहीं दे रहा था | इस सन्नाटे को तोड़ते हुए कभी कभी पक्षियों का स्वर सुनाई पड़ जाता था | एक अनजान पहाडी रास्ता, किधर जाएं? यदि गलत पगडंडी पर चले गए, तो संध्या होने पर जंगली जानवरों और वर्षा का भय | तमाम विचार एक साथ दिमाग में आने लगे, और अंत में निराश हो कर, किसी प्रकार का ख़तरा न लेते हुए वापस आने का निश्चय कर लिया | भूख लगी थी, अतएव समीप ही एक निर्मल जल के झरने के किनारे विशाल देवदार के वृक्ष के नीचे, हम लोग भोजन करने बैठ गए | भोजन के समय निरंतर सोच रहा था, कि लगता है भविष्य बद्री के दर्शन भाग्य में नहीं हैं; इसी मध्य एक कुत्ता किसी पगडंडी से वहां आ गया, मानों डूबते को तिनके का सहारा मिला हो, कभी एक कहानी सुनी या पढी थी, कि कुत्ता गाँव से जंगल की ओर जाता है, अचानक वह कहानी यद् आई, और मैंने कहा कि, यह कुत्ता जिस मार्ग से आया है, हम उसी मार्ग पर चलते हैं,  और हम चल पड़े, परन्तु यह क्या ? वह कुत्ता थोड़ी दूर तक हमसे आगे चला गया, फिर वापस आ गया, जैसे कोई देवदूत हमें गंतव्य की ओर निरापद ले जा रहा हो, पूरे रास्ते इसी प्रकार वह कुछ दूर आगे जाता, फिर वापस आ कर हमें साथ लेता, इस प्रकार उसके मार्गदर्शन में हम १.५-२ कि.मी. चल कर एक बस्ती में पहुँच गए, उसके पश्चात वह देवदूत वापस नहीं लौटा | गाँव वालों ने बताया, हम सही आए हैं, आगे एक सरकारी सेव का बगीचा है, जिसका रखवाला ही हमें भविष्य बद्री के दर्शन कराएगा | हम लोग उस बगीचे में पहुंचे, तो वहां एक कुत्ता बंधा हुआ था, जिसे देखकर, हम तीनों के मुख से अचानक निकला ‘ यही कुत्ता तो हमें यहाँ तक लाया है’ इस पर उस बाग़-रक्षक ने कहा, यह तो प्रातः से ही यहाँ जंजीर से बंधा है, इसे केवल रात्रि में बाग़ की रखवाली के लिए खोला जाता है, और यह बहुत खूंखार है, उस रक्षक के अतिरिक्त किसी पर भी आक्रमण कर देगा | तब हमें याद आया रहीम का दोहा
रन, बन, व्याधि, विपत्ति में रहिमन मरिये न रोय |
              जो रक्षक, जननी जठर, सो हरि गयऊ न सोय ||





Wednesday, August 12, 2015

सांसद निधि

      यूं तो मैं संसद की कार्यवाही कभी गलती से भी टेलीविजन पर नहीं देखता हूँ; क्यों कि संसद का दृष्य और वार्तालाप बहुत कुछ पुरातन सम्मिलित भारतीय परवारों के जैसा ही दिखता है, जिसमें दोपहर में मर्दों (जनता) के घर से चले जाने के पश्चात सास-बहू, देवरानी-जिठानी, या ननद-भाभी के उलाहने और आरोप-प्रत्यारोप खुल कर होते हैं, कभी कभी जब बात हद से अधिक बढ़ जाती है, तो एक दुसरे की चारित्रिक पर्तों का जो अनावरण होता है, वह आश्चर्यचकित कर देने वाला होता है | यदि कभी आप उसे स्वयं सुन पाते, तो पता चलता कि जिस बहन, बेटी, पत्नी या पुत्रवधू को आप सर्वाधिक सुसंस्कृत समझते रहे हैं, वास्तव में वह कहीं से उसके आस-पास भी नहीं है | कभी कभी तो जब किसी कुकृत्य में दो लोग सम्मिलित होते हैं और फिर किसी बात पर मत भिन्नता होने पर एक दुसरे को लांक्षित करते हुए आरोप लगाते हैं, और वही लोग किसी पर्व पर, जब उनको अपने सबके लिए नए वस्त्र-आभूषण खरीदने होते हैं तो उनका आपसी सामंजस्य और आपसी प्रेम देखते हैं, तो ठीक भारत की संसद का सा दृष्य दिखाई पड़ता है | लेकिन आज कल के बच्चों को तो इस प्रकार के परिवारों का अनुभव ही नहीं है; क्यों कि अधिकाँश परिवारों में तो एक ही बच्चा होता है तो नन्द-भोजाई या देवरानी-जिठानी की तकरार दिखाई नहीं देती, इसी लिए इस नई पीढी को संसद की कार्यवाही देख कर कुछ अटपटा सा लगता होगा, परन्तु इससे उन्हें एन्टीक भारतीय परिवारों के वातावरण के विषय में जानकारी मिलती है | हाँ तो मैं कह रहा था कि ७ अगस्त २०१५ को अचानक टी. वी. खोला तो लोकसभा चैनल खुल गई, जिसमें कोई बी.जे.पी. के सांसद बोल रहे थे, शायद विषय था सांसद निधि, उनका कहना था कि पांच करोड़ सांसद निधि बहुत कम रहती है इसे बढ़ाकर १५ करोड़ किया जाना चाहिए, इस पर पूरे सदन से समवेत स्वरों में आवाज आई १५ नहीं २५ करोड़, इसे कहते हैं संसदीय एकता, ध्यान रहे २१ जुलाई से आज तक किसी विषय पर संसद हंगामे के अतिरिक्त कभी एक मत दिखाई नहीं दी | वास्तव में यह मांग है भी न्याय संगत, भई महंगाई बढ़ गई है ५ करोड़ पर २०% के हिसाब से केवल एक करोड़ ही तो कमीशन बनता है, इतने में तो दिल्ली जैसे शहर में एक अच्छासा फ़्लैट भी नहीं मिलेगा, अब २८ रु के भोजन और संसद सत्र में बगैर काम किये भी मिलने वाले वेतन-भत्ते से कितनी कमाई होगी? हर किसी को तो मंत्रीमंडल या क्रिकेट बोर्ड जैसी कमाऊ संस्थाओं में जगह मिल नहीं जाती कि विभिन्न कामों में मोटा कमीशन लेकर, अधिकारियों के ट्रान्सफर-पोस्टिं आदि में अलग से मोटी कमाई कर सके; न ही क्वात्रोच्ची एवं ललित मोदी जैसे लोग हर एक को आर्थिक लाभ पहुँचाएँगे | ऐसे में सामान्य सांसदों, विधायकों एवं अन्य जन प्रतिनिधियों का सहारा तो एक मात्र यही निधि है, इसी से इस चुनाव का करोड़ों रु और अगले चुनाव का खर्च भी निकालना है, अब हर कोई तो इतना भाग्यशाली है नहीं कि उसका चुनावी खर्च बड़े बड़े उद्योगपती उठा लें, उसके लिए बड़ी बड़ी बाते और बड़े बड़े वादे करने का सीना चाहिए |
      बात केवल अपने तक सीमित होती तब भी ठीक था, अब अपने नालायक, आवारा एवं पप्पू किस्म के बेटों, दामादों, बहुओं, बेटियों आदि को भी तो इसी राजनीति में स्थापित करने के लिए प्रचुर धन चाहिए | अब क्या कहें यह व्यवस्था भी यदि हिन्दू वर्ण व्यवस्था जैसी होती, (जहाँ ब्राहमण की   अयोग्य संतान भी ब्राह्मण और पूज्य होती है | डरने वाली क्षत्रिय की संतान बहादुर क्षत्रिय ही होती है, व्यापार का ककहरा न जानने वाला वणिकपुत्र वणिक ही होता है, परन्तु सचरित्र और प्रखर विद्वान् शूद्र की संतान सदैव अस्पर्श्य ही रहती है, यद्यपि विद्वान् बार बार सद्ग्रंथों का उदाहरण प्रस्तुत करते है कि वर्ण व्यवस्था जन्म से न हो कर कर्म से रही है और उसके लिए एक-दो उदाहरण भी प्रस्तुत करते हैं, यथा बाल्मीकी, विश्वामित्र अपने कर्मों से महान संत बन गए) तो कोई समस्या नहीं होती फिर तो, जनप्रतिनिधि का बेटा, बेटी, दामाद आदि स्वतः जन प्रतिनिधि होते फिर कोई खर्च नहीं करना पड़ता; यद्यपि कुछ क्षेत्रों में तो हो गया है, जैसे प्रधानमंत्री का बेटा प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री का बेटा मुख्यमंत्री और पार्टी अद्ध्यक्ष का बेटा पार्टी अद्ध्यक्ष बनने लगा है, बेटा बड़ा न हो तो निरक्षर पत्नी भी मुख्यमंत्री बन सकी है; परन्तु सामान्य जनप्रतिनिधि को तो अभी संघर्ष ही करना पड़ता है, अभी गणतंत्र बने ७० वर्ष भी तो नहीं हुए हैं, इतने में ही बहुत कुछ जन्म के आधार पर हो गया है, यद्यपि संविधान भारतीय सद्ग्रंथों की तरह अपने दिशा निर्देश दे रहा है |
      लोग कहते हैं राजनेता चुनाव के लिए झूठे वादे करते हैं; तो यह हमारी अपनी समझ की कमी है, कांग्रेस ने कहा कि गरीबी हटाओ, तो अभी पिछले चुनावों में कहा गया “अच्छे दिन आने वाले -----हैं” अब खुद सोचें जन प्रतिनिधि का तात्पर्य क्या है, जनता के एक समूह का प्रतिनिधि अर्थात उसको देखकर उस जनता के विषय में आप अनुमान लगा सकते हैं, जिसका वह प्रतिनिधि है | अब खिचडी में एक या दो चावल ही तो देखते हैं कि वे पक गई या नहीं, पूरी की पूरी खिचडी तो मसल कर देखते नहीं इसी प्रकार गरीबी हटी या नहीं, अच्छे दिन आए या नहीं इन जन प्रतिनिधियों को देख कर ही अनुमान लगाया जा सकता है, न कि पूरी की पूरी १२५ करोड़ आबादी को | तो अब आप स्वयं देख लें कोई भी सांसद या विधायक शायद ही कई करोड़ से कम का मालिक हो, और तो और साईकिल से चलता हुआ किराए के मकान में रहने वाला एक व्यक्ति सभासद या सरपंच चुना जाता है तो एक वर्ष पूरा होते होते बड़ी चौपहिया से चलने लगता है, और कई प्लाट, फ़्लैट, आदि का स्वामी हो जाता है, और कितनी तीव्र गति से आप वादे पूरे होते देखना चाहते हैं ?
                अब बात विदेशों में जमा काले धन की, तो जो कुछ कहा गया था, सत्ता से बाहर रहते हुए कहा गया था, वह एक अनुमान था कि भृष्ट लोगों के खाते विदेशों में हैं, जिनमें खरबों रु जमा होंगे; परन्तु अब पता चला कि जनप्रतिनिधियों के खातों में तो कोई काला धन है ही नहीं, वह तो जनता की गाढी कमाई का धन है, भई जनप्रतिनिधि तो जनता का है, इसलिए जनता का सब कुछ उनका अपना है, वैसे भी जन सामान्य मोह-माया से दूर रहने के कितने उपाय करता है, इसके लिए कितने साधू-संत प्रयासरत हैं, वही काम तो माननीय कर रहे हैं, वे तो एक कदम आगे बढ़ कर स्वयं भी माया को अपने से बहुत दूर दूसरे देश में रखे हैं, अब कुछ बड़े व्यापारी, वे तो अहर्निश राष्ट्र सेवा में लगे हैं, हर चुनाव में जनतंत्र को मजबूत बनाने के लिए सुपात्रों के चुनाव का बड़ा खर्च उठाते हैं, तो राष्ट्र का धन राष्ट्र में ही व्यय होता है, फिर भी सरकार पूरी गंभीरता से प्रयासरत है कि जो भी काला धन विदेशों में है उसे शीघ्र वापस ला सके | मेरे एक परिचित बोले कि पूरा मानसून सत्र बेकार चला गया कोई काम नहीं हुआ; अब उन्हें कौन समझाए कि यह व्यवधान सता पक्ष एवं विपक्ष की आपसी सहमति से ही होता है, दोनों पक्ष के लोगों को सरकारी वेतन-भत्ते के साथ अपने कुछ अति आत्मीय एवं अन्तरंग लोगों से मिलने का समय भी चाहिए होता है, पिछले तमाम सत्रों में देख लीजिये अंत के तीन-चार दिन ही कुछ कार्य होता है, साथ ही यदि संसद में जी.एस.टी., भूमि अधिग्रहण जैसे फालतू के बिल लाए जाएंगे तो सत्र में हंगामा नहीं होगा तो क्या होगा? अरे इनके पास होने से माननीय लोगों को क्या मिलेगा ? माननीय लोगों के वेतन-भत्ते बढाने, सांसद निधि बढाने जैसे प्रस्ताव लाइए देखिये संसद कैसे एक मत हो कर चलती है, विद्यालयों में पुष्टाहार बांटने जैसे जन-कल्याणकारी प्रस्ताव आने चाहियें, बच्चों को खराब आहार न मिल जाए इसलिए इसे सतर्क प्रषाशन के मंत्री से लेकर संतरी तक सभी चख कर देखते हैं, और चखने चखने में आधा ही बच्चों के लिए शेष बच पाता है; लेकिन कोई बात नहीं दूध और दलिया सुपाच्य और सही पुष्टाहार है | दूध में आप कितना भी पानी मिलाते जाएं, स्टेशन की चाय के दूध से भी पतला होने पर भी उसे दूध ही कहा जाएगा, इसी प्रकार दलिये में कितना भी पानी मिला दीजिये, जब तक गेंहूं का दाना दिखेगा, वह दलीया ही कहलाएगा | अब महिला आरक्षण विधेयक को ही लीजिये कितने प्रयाष के पश्चात भी अभी तक पारित नहीं हो सका; कारण वह प्रस्तुत ही गलत तरीके से किया गया था | यदि कहा गया होता कि लोकसभा में जो भी पुरुष सांसद हैं, उनकी पत्नी, पुत्री, प्रेयसी आदि ही राज्य सभा की सदस्य होंगे, उसी प्रकार जो महिला सांसद है उनके पुरुष साथी ही राज्य सभा में आएँगे, आशा ही नहीं विश्वाष है कि प्रथम प्रयाष में ही यह बिल पास हो गया होता और नारी शक्ति को उचित प्रतिनिधित्व भी मिल गया होता | हम सभी ने अनुभव किया होगा कि जिस कार्य को वेतन भोगी चार कर्मचारी पांच दिन में कर पाते हैं, उसी कार्य को उन्ही में से तीन कर्मचारी ठेके पर मात्र तीन दिन में पूरा कर देते हैं; तो संसद को ठेके पर भी चलाने पर विचार किया जा सकता है | यथा पहले अक्सर संसद में मद्ध्यावधि चुनाव की तलवार लटकी रहती थी, और कई बार हुए भी; परन्तु जबसे माननीयों को सांसद निधि के रूप में मानदेय की व्यवस्था की गई है, मद्ध्यावधि चुनाव अब बीते समय की बात हो गई है |

      पता नहीं क्यों लोग माननीयों की व्यर्थ आलोचना करने में अपना समय और ऊर्जा व्यतीत करते हैं; जिनका अपना सम्पूर्ण जीवन ही नहीं, अपितु पूरा परिवार ही राष्ट्र सेवा के लिए समर्पित है, उनके लिए इस प्रकार की अभद्र टिप्पड़ी सुन कर बहुत कष्ट होता है, कि ये बहुत ही निर्लज्ज होते हैं, जिनका नाम बैंक धोखाधड़ी में आय हो या सैनिक सामान की दलाली में आया हो ऐसे लोगों को भी भारत रत्न से अलंकृत कर दिया जाता है ; अब इन अल्प बुद्धि लोगों को कौन समझाए कि यह पुरस्कार है ही मुख्यरूप से इन माननीयों के लिए था, जन सामान्य के लिए नहीं, क्योंकि जिसे आप दूषण कह रहे हैं, वह माननीयों का आभूषण है; जैसे गंगा के जल में कितने भी गंदे नाले मिल जाएं गंगा पवित्र और पतित-पावन ही रहती है, उसी प्रकार जितनी भी सांसारिक बुराइयां और विकार हैं उन सबको अपने में आत्मसात करते हुए भी ये माननीय निर्लिप्त, सत्य सनातन शिव तत्व हैं, इसी लिए तो भारत रत्न हैं |

Monday, February 17, 2014

कस्मसाते सपने

भारत में स्वतंत्रता के पश्चात् से ही कांग्रेस के संरक्षण में जिस प्रकार निरंतर भृष्टाचार बढ़ता गया और आम आदमी उसकी तपन में झुलसता रहा, अलग अलग सिद्धांतों को लेकर अनेकानेक राजनैतिक दल सामने आए और हरबार एक नई आशा का संचार आम आदमी के अन्दर उदय होने के पूर्व ही दम तोड़ गया क्योंकि सभी राजनीतिक दल उसी गटर का जल पी कर उसी नाली के कीड़े बन गए, जिसमें कांग्रेस आकंठ डूब चुकी थी. संघ के चरित्रवान और अनुशाषित संघठन से उत्त्पन्न भारतीय जनसंघ, जो बाद में भारतीय जनता पार्टी हो गई या बेबस और शोषित कामगारों को न्याय दिलाने वाली कमुनिष्ट पार्टी हो या जय प्रकाशजी के आन्दोलन से निकले लालू की पार्टी या बोफोर्स के नाम पर जनभावनाओं से खेलने वाले विश्वनाथ प्रताप सिंह सभी ने एक बार तो जनाकांक्षाओं को आशा की किरण दिखाई लेकिन तत्काल ही उन आशाओं और अपेक्षाओं पर तुषारापात हो गया और आम आदमी ठगा का ठगा सा रह गया, मंत्री से लेकर संतरी तक पूरा सरकारी तंत्र भृष्टाचार में लिप्त हो गया और बड़े व्यापारी घराने, दलाल, तस्कर, मीडिया और अपराधियों का सरकार के साथ गठबंधन हो गया नेता और राजनैतिक दल अनैतिकता के हाथों बिक चुके हैं, इतना ही नहीं चुनिन्दा ईमानदार कर्मचारियों और संवैधानिक संस्थाओं का काम करना कठिन ही नहीं असंभव हो गया, अनैतिक लोगों को क़ानून का भय समाप्त हो गया और नैतिकता के पुजारी, अनैतिक कानून से भयभीत होने लगे, ऐसे में अन्ना एक नई आशा की किरण ले कर जनता के बीच आए, जिसे निरंकुश सरकार ने बुरी तरह कुचल दिया, परन्तु उस आन्दोलन से दिल्ली में अरविन्द केजरीवाल के नेतृत्व में एक नई सोच का उदय हुआ जिसका नाम था “आम आदमी पार्टी” और इस नई पार्टी को दलित,व्यथित आम आदमी का प्रचंड समर्थन भी प्राप्त हुआ, अपेक्षा के विपरीत इस दल को दिल्ली विधानसभा में २८ सीटें मिल गईं और भृष्ट कांग्रेस ने राजनैतिक खेल खेलते हुए आआप को बिन मागा समर्थन दे कर सीमित अधिकारों के साथ सत्तासीन कर दिया, काम कठिन था, वादे बड़े और विपक्क्ष में बैठने के आधार पर किये गए थे लेकिन अपने ही गले आ पड़े ऐसे में केजरीवाल के आचरण से स्पष्ट झलकने लगा कि वो दूसरों के माथे ठीकरा फोड़ कर सत्ता से हटने का सहज मार्ग तलाश रहे हैं, और इसके लिए उन्होंने हठधर्मिता पूर्वक जनलोकपाल का बहाना बना कर सत्ता छोड़ दी और आम आदमी एक फिर किंकर्तव्यविमूढ़ ठगा सा रह गया.
दुनिया में तीन प्रकार के लोग होते हैं १. वे जो बाधाओं के भय से कोई कार्य प्रारम्भ ही नहीं करते २. वे जो कार्य तो प्रारम्भ करते हैं लेकिन बाधाओं के आने पर उस कार्य को छोड़ देते हैं, इनके प्रकृति पलायनवादी होती है और ऐसे लोग किसी दुसरे का तो क्या अपना भी भला नहीं कर सकते ३. वे जो एक बार कार्य प्रारम्भ करने के पश्चात समाप्त किये बगैर नहीं छोड़ते. केजरीवाल अभी तक के अपने आचरण से दुसरे प्रकार के व्यक्ति मालूम पड़ते हैं, जो एक वादा करते हैं कसमें खाते है और अगले ही पल उसे तोड़ देते हैं. वे अनेक आन्दोलनों और संस्थाओं से जुड़े लेकिन सभी से पलायन कर गए, कहीं भी स्थायित्व प्राप्त नहीं किया, इसी प्रकार दिल्ली के मुख्यमंत्री बने लोगों की आकांक्षाओं को उड़ान दी और जनमानस को निराश करते हुए दो माह की अल्पावधि में ही पलायन कर गए. इसमें एक और बात है नवजात राजनैतिक दल को जो अप्रत्याषित सफलता मिली उसने इनकी आकांक्षाओं को अत्यधिक बढ़ा दिया और कुछ माह पश्चात् होने वाले लोकसभा चुनावों में उसी प्रकार की सफलता की आश लिए निष्प्रयोजन कार्य करने में तत्पर हो गए जिससे उपहास के पात्र तो बने ही आम जनता में शाख भी गई. “बिना विचारे जो करे, सो पाछे पछताए. काम बिगारे आपनो, जग में होत हंसाय” दिल्ली की सत्ता पर कब्जा करने की हडबडी में, इन्होने वही गलती दोहराई जो चन्द्रगुप्त मौर्य ने की थी, जब वो नन्द वंश के विरुद्ध कौटिल्य के साथ सघर्ष कर रहे थे तो मगध जैसे शक्तिशाली साम्राज्य के विरुद्ध पाटलिपुत्र में विद्रोह खडा करने का प्रयास किया और परास्त हुए, उस अवस्था में दोनों क्षद्म वेश में छुपते हुए एक वृद्धा के घर में आश्रय लेने पहुंचे तो रात्रि में गर्म खिचडी खाने के लिए उतावले पन में चन्द्रगुप्त ने बीच से खिचडी खा ली और मुह जला बैठे, तब उस वृद्धा ने कहा “तुमने भी वही गल्ती की जो चन्द्रगुप्त ने की, जिस प्रकार पहले बाहर के राज्यों पर अधिकार करना चाहिए था, उसी प्रकार गर्म खिचडी किनारे से खानी चाहिए थी” केजरीवाल को भी पहले दिल्ली को सुधारना चाहिए था और दिल्ली की लोक सभा सीटों को कब्जे में कर एक दो अन्य राज्यों पर कब्ज़ा कर वहां भृष्टाचार मुक्त सुषाशन करके दिखाना चाहिए था. यदि जनलोकपाल पर सहमती नहीं बन रही थी अपने तरीके का लोकायुक्त लेकर आते और अपने राजनैतिक वादे पूरे करते हुए पूर्व के भृष्ट नेताओं और अधिकारियों को दण्डित करवाते तो लोक सभा तो स्वयं कब्जे में आ जाति; परन्तु केजरीवाल के पलायनवादी व्यवहार ने आम आदमी को एक बार पुनः निराश किया है. अब यह भविष्य ही बताएगा कि केजरीवाल भी पूर्व के लोगों की भाँती सत्तालोलुप और महत्वाकांक्षी हैं या उससे अलग कुछ अच्छा कर गुजरने की लालसा रखते हैं? भविष्य में जो कुछ भी हो लेकिन उनके अभी तक के आचरण ने तो लोगों को निराश और हताश ही किया है.

Thursday, February 6, 2014

नफरत से उत्पन्न एक और दल आआप

                 न केवल भारत में अपितु सम्पूर्ण विश्व में जब जब अन्याय और अत्याचार बढ़ा है तब तब प्रतिक्रिया स्वरुप नई परिस्थितियों का जन्म हुआ है (यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवत ....) और उन्होंने समाज में एक नई आशा का संचार भी किया, परन्तु वे बहुत समय तक उस रूप में अक्षुण नहीं रही हैं और लोगों की अपेक्षाओं को आशानुरूप पूर्ण नहीं किया है. जब विश्व के कई अलग अलग हिस्सों में औद्योगीकरण के कारण कलकारखानों का चलन बढ़ा तो पूंजीवाद बढ़ा और सामान्य व्यक्ति जिसे कामगार कहते थे, के साथ अन्याय और अत्याचार बढ़ता गया. राष्ट्र की सत्ता पर परोक्ष या अपरोक्ष रूप से पूंजी पतियों का शाषन होगया तब उन्होंने नियम क़ानून अपने पक्ष में बना लिए और सामान्य नागरिक गुलामों का जीवन जीने पर विवश हुआ, उसके पास किसी प्रकार के राजनैतिक सामजिक अधिकार नहीं थे. मुट्ठीभर लोग पूरी जनता पर अत्याचार कर रहे थे तब इस अत्याचार के विरुध्द जर्मनी के विचारक कार्ल मार्क्स ने १८४० में साम्यवाद का विचार दिया जो पूँजीवाद के विरुद्ध एक नफरत थी और उसी के आधार पर अनेक राष्ट्रों में क्रांति हुई जिसमे १९०५ में रूस में जारों के अत्याचार के विरुद्ध हुई क्रांति सर्वाधिक विख्यात हुई; परन्तु इनमें से कोई भी परिवर्तन अपने उद्येश्य में पूर्णतया सफल नहीं हुए और शनैः शनैः समाप्त हो गए. कहने को तो सत्ता कामगार के हाथों में आई परन्तु वास्तव में क्रांति के अगुआ बने लोग ही सत्ता के केंद्र रहे और कमोबेश जनता उसी प्रकार अगले परिवर्तन की बाट जोहने को विवश बनी रही. वास्तव में किसी भी क्रिया के विरुद्ध प्रतिक्रिया स्वरूप जो क्रिया होती है उसमें चिंतन और योजना का सर्वथा अभाव रहता है, अतएव वह तात्कालिक होती है, इसीलिये उस का लाभ आन्दोलन की अगुआई करने वालों को समर्थ बनाने तक सीमित रह जाता है.
          इस वैश्विक घटना के सामान ही भारत में भी सामजिक असमानता के चलते बहु संख्यक जनता (पिछड़े, अनुचूचित जाति, जन जाति आदि) तथाकथित सवर्णों (ब्राम्हण,क्षत्रिय,वैश्य) के अत्याचारों से त्रस्त थी. देखने में यह जाति या वर्ग भेद दिखता है; परन्तु वास्तव में यह भी अन्य वैश्विक देशों की तरह सामर्थ्य आधारित था, बुद्धि, अर्थ और भुज बल (सरस्वती,लक्ष्मी,दुर्गा) से युक्त लोगों ने अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया था और शेष को दासों से भी बदतर जीवन व्यतीत करने को विवश कर रखा था. भारत में इन तीन शक्तियों से युक्त लोगों ने अपना जातिआधारित समूह बना लिया था, इसलिए यहाँ का भेद जाति भेद के रूप में दिखाई दिया. १५ अगस्त १९४७ के पश्चात् आशा बंधी थी कि यह जाति भेद समाप्त होगा भारत सरकार इसके लिए कठोर कदम उठा कर इस अभिशाप को समाप्त करेगी, परन्तु वैसा कुछ नहीं हुआ, क़ानून तो बना परन्तु वह कागज़ पर ही रहा. इन पिछड़े हुए और पददलित किये लोगों को बराबरी पर लाने के लिए शिक्षा, नौकरी आदि में आरक्षण की व्यवस्था भी की गई, परन्तु ईमानदारी से नहीं, स्वतंत्र भारत में सत्ता में बैठे लोगों को शीघ्र समझ में आगया कि इन दलितों और पिछड़ों को  केवल आश्वाषनों के दम पर वोट के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है; जब तक ये पिछड़े हैं, दलित हैं तभी तक निर्द्वंद शाषन किया जा सकता है. परन्तु इन पिछड़े और दलित वर्ग के युवा जब राजनीति में आए तब उन्होंने देखा कि सत्तासीन लोग किस प्रकार निरंतर उन्हें मूर्ख बना कर धूर्तता पूर्वक राज्य कर रहे हैं, लोकनायक जयप्रकाशजी के भ्रष्टाचार एवं व्याप्त असमानता के विरुद्ध जनान्दोलन से निकले लालूजी से जनपेक्षाएँ थीं कि वे भारतीय राजनीति को नई दिशा देंगे, परन्तु सत्ता में आते ही उन्होंने सवर्णों के प्रति घृणा का ऐसा भाव फैलाया कि अपने एक वर्ग विशेष को संगिठित कर निरंतर सत्ता में बने रहने का उपक्रम किया और स्वयं उसी सत्ता के अंग बन गए जिसके विरुद्ध संघर्ष किया था और जनता वहीं की वहीं उसी स्थिति में बनी रही. इसी प्रकार काशीरामजी और मायावती ने सत्ता में बने रहने के लिए दलितों और सवर्णों के मध्य उसी घृणा का आश्रय लिया (तिलक तराजू और तलवार इनमें मारो.....) और स्वयं उसी भृष्ट शाषन का अभिन्न अंग बन कर रह गईं. न तो दलितों का कोई भला किया और न ही राष्ट्र का. १९९१ में जब नर्सिंघराव भारत के प्रधान मंत्री बने तब उनकी सरकार अल्पमत में थी, उसे अक्क्षुन बनाए रखने के लिए सांसद निधि के नाम पर प्रत्येक सांसद को अप्रत्यक्ष घूष की पेशकश की गई और उसके पश्चात से लगभग सभी जनप्रतिनिधि भ्रष्टाचार और दलाली के दल दल में डूबते चले गए, साथ ही क़ानून बनाने के अपने अधिकार का दुरूपयोग कर के अपने पक्ष में नित नए क़ानून बना कर इन जनप्रतिनिधियों ने स्वयं को जनता से अलग सामंतों की स्थिति में कर लिया, विभिन्न प्रकार की सुविधाएं और अधिकार अपने लिए एकत्रित कर लिए, क़ानून इनके सामने बौना हो गया. अपराधियों दलालों मुनाफाखोर व्यापारियों और जनप्रितिनिधियों का एक ऐसा गठबंधन बना कि अब घोटालों की बाढ़ सी आने लगी धीरे धीरे ये घोटाले लाख करोड़ तक जा पहुंचे और इन घोटालों की भरपाई के लिए नए नए कर लगा कर महंगाई को बेलगाम छोड़ दिया गया. जनप्रतिनिधि इतने निर्लज्ज, भृष्ट और अनैतिक हो गए कि कोई अभद्र से अभद्र गाली भी उनके आचरण के सामने लज्जित होने लगी. नेता अति विशिष्ट शैली के नाम पर सैकड़ों सुरक्षा कर्मियों के मध्य सुरक्षित हो गए और सामान्य व्यक्ति भगवान् भरोसे पूर्णतः असुरक्षित हो गया, वह लूट, डकैती, बलात्कार जैसी घटनाओं से पीड़ित किसी से व्यथा कहने योग्य भी नहीं था. सभी सरकारी विभागों में छोटे से छोटे काम के लिए रिश्वत आवश्यक हो गई और इस रिश्वत में हिस्सा संत्री से लेकर मंत्री तक सभी का है . ऐसे में त्राहि त्राहि करती जनता को संबल प्रदान करने अन्ना हजारेजी और बाबा रामदेव ने भ्रष्टाचार के विरुद्ध जनआन्दोलन छेड़ा जिसे सत्ता के मद में चूर सरकार ने निर्ममता पूर्वक कुचल दिया, जिसके कारण सामान्य जन में जनप्रतिनिधियों और इस राजनैतिक सड़ी गली व्यवस्था के विरुद्ध एक नफरत का गुबार उठ पड़ा और इसी नफरत को हवा देते हुए उस जनान्दोलन से आम आदमी पार्टी का अभ्युदय हुआ जिसके मुखिया अरविन्द केजरीवाल सहित सभी सदस्यों ने सत्ता प्राप्त करने के लिए बड़े बड़े और झूठे वादे किये और नेताओं के प्रति नफरत को खूब हवा दी , दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने जनसभा में स्पष्ट कहा कि भारत सरकार का गृहमन्त्री दिल्ली पुलिस से धन उगाई करता है, निश्चित यह गंभीर आरोप है जो सवैधानिक पद पर आसीन एक उत्तरदायी व्यक्ति ने लगाया है, यदि यह झूठ था तो केजरीवाल को पद पर बने रहने का एक पल भी अधिकार नहीं था उन्हें बंदी बना लिया जाना चाहिए था और यदि यह सत्य था तो शिंदे को तत्काल हटा कर बंदी बना लेना चाहिए था. परन्तु वैसा कुछ नहीं हुआ. केजरीवाल ने पूर्व राजनेताओं के विरुद्ध केवल नफरत बढानी थे और गृहमन्त्री द्वारा पूर्व की भाँती निर्लज्जता का परिचय देना था. जनता ने आआप पर विश्वाष किया और हर बार की तरह फिर ठगी गई. सत्ता प्राप्ति के साथ ही सभी कसमें वादे स्वतः टूटने लगे और सत्ता का रंग चढने लगा. आज स्थापित राजनैतिक दलों को आम आदमी पार्टी से यही खास परेशानी है कि जिस प्रकार के झूठे वादे और नौटंकी चुनाव पूर्व ये दल करते थे; यह नवजन्मा दल इन सबसे कहीं आगे निकला और उसी प्रकार का ड्रामा करने को इन्हें न केवल विवश होना पड़ा(संजय निरूपम द्वारा धारण, कई मुख्यमंत्रियों द्वारा निज सुरक्षा में कमी दिखाना आदि), अपितु जनाधार भी खिसका और सत्ता सुख से भी विमुख होना पड़ा. आम आदमी तो फिर वहीं का वहीं है जहाँ पहले था. नफरत की प्रतिक्रिया से कभी भी किसी का कोई भला नहीं होने वाला है, हाँ आआप के नेताओं को अवश्य सत्ता सुख मिल गया है और कुछ समय तक मिलता भी रहेगा.
      जनप्रतिनिधियों में व्याप्त भ्रष्टाचार और अहंकार की जड़ में इनके द्वारा ही अपने पक्ष में क़ानून बनाने की विशेष सुविधा है जिसे तत्काल समाप्त किया जाना चाहिए. सभी जनप्रतिनिधियों के विशेषाधिकार और विभिन्न सुविधाओं में कोटे समाप्त कर दिए जाने चाहियें, इनको दी जाने वाली विकास निधि समाप्त करने सहित इन्हें किसी भी लाभ के पद पर नियुक्ति नहीं मिलनी चाहिए. यदि वेतन कम हो तो उसे निश्चित बढ़ाया जाए, परन्तु इनके किसी भी छोटे बड़े अपराध की जांच प्राथमिकता के आधार पर निश्चित समयावधि में त्वरित की जानी चाहिए. जब तक इन्हें विशेष सुविधा प्राप्त रहेगी जन प्रतिनिधि और सामान्य जन के मध्य दूरी निरंतर बढ़ती रहेगी और जनप्रतिनिधि बनने के लिए चुनाव व्यय बढ़ता रहेगा जो भ्रष्टाचार का मूल कारण है. 

Tuesday, November 26, 2013

तहलका


१६ मई २००८ को जिस १४ वर्षीय नाबालिग बालिका आरुषी एवं एक नौकर हेमराज की हत्या की गई थी, जिसने पूरे देश में एक तहलका मचा दिया था। दिनांक २५ नवम्बर २०१३ को न्यायालय का निर्णय आगया है, जिसमें आरुषी के माता-पिता ‘नूपुर’ एवं राजेश तलवार को दोषी पाया गया है।  आखिर ऐसा क्या हुआ कि एक माता-पिता को अपने ही कलेजे के टुकड़े की हत्या करनी पडी। जांच से पता चला कि १५ मई २००८ की रात्रि में इस नाबालिक पुत्री को अपने नौकर हेमराज के साथ अत्यधिक आपत्ति जनक स्थिति में देखा था और वे अपने ऊपर संयम नहीं रख सके। एक बात निश्चित है कि यह योनाचार आपसी सहमति से हो रहा था। प्रश्न उठता है कि क्या इस नाबालिक बालिका के साथ सहमति से हो रहे यौनाचार को सहजरूप में लेना चाहिए था? तलवार दंपत्ति धन कमाने और आधुनिकता की दौड़ में कुछ इस प्रकार संलिप्त हुए कि अपनी बच्ची से ध्यान हटा बैठे और नौकर पर अति विश्वास कर लिया। स्त्री स्वातन्त्रके हिमायती संभवतः इसमें कुछ भी बुरा न माने परन्तु आधुनिक जीवन यापन करने वाले तलवार दंपत्ति अन्तःकरण से पुरातन भारतीय परम्परा के हिमायती थे जो पुत्री के कुंवारेपन पर आई आंच को सह नहीं पाए और अपराध कर बैठे। आज इस राष्ट्र के प्रत्येक महत्वपूर्ण संस्था में और दैनिक जीवन में जो यौन उत्पीडन की घटनाएं सुनाई देतीं हैं उसके मूल में यह दोहरे मापदंडों में जी रहे लोगों की दुविधा का परिणाम दिखता है। एक ओर हमारे अंतःकरण में पुरातन मान्यता कूट कूट कर भरी हुई है जिसमें नारी को अति पवित्र माना गया था और उसकी काया को कुत्सित भाव से कोई नहीं छू सकता था। नारी काया पर मात्र उसके पति का ही अधिकार होता था। अपनी उस काया को आततायी से बचाने और अपने सतीत्व की रक्षा के लिए यहाँ की वीरांगनाएँ जौहर करके स्वयं को जीवित जला देती थीं। यहाँ ‘यत्र नार्यस्तु पूजन्ते रमन्ते तत्र देवता’ का भाव रखते हुए नारी को माता और बहन के रूप में देखने की पवित्र परम्परा रही है, इसीलिये यहाँ के समाज में आदर्श रूप में भगवती सीता, माता अनुसुइया और महान सती सावित्री जैसी विभूतियाँ रही हैं। नारी को पूज्या और शक्ति का प्रतीक माना गया उसे कभी भी भोग्य नहीं माना गया, यद्यपि इस पुरुष प्रधान समाज में कुछ मध्यकालीन कवियों ने अपनी कृति में अनावृत नारी सौन्दर्य का नखशिख कामुक वर्णन किया है और उसमें विद्वानों को सौन्दर्य बोध भी होता है उसी प्रकार प्रसिद्ध चित्रकार मक़बूलफ़िदा हुसैन को भी निर्वस्त्र नारी कलेवर की चित्रकारी में ही सौन्दर्य दिखता था। इनलोगों को यह सौन्दर्य बोध निर्वस्त्र पुरुष में क्यों नहीं दिखा? इतना सब होने पर भी उस काल में संचार माध्यम इतने सशक्त न होने से यह गंदगी जन जन तक नहीं फ़ैल सकी और बच्चे बचपन से अपनी दादी-नानी द्वारा महान सतियों की कहानी सुनकर स्त्री जातिके प्रति अलौकिक सम्मान और श्रद्धा भाव से संस्कारित होते रहते थे, उन्हें राम का एक पत्नीवृत्त, शिवाजी का नारी जाति के प्रति आदरभाव और इसी प्रकार की विभिन्न ऐतिहासिक-पौराणिक कथाएँ जिनमें नारी रक्षा के लिए प्राणोत्सर्ग तक करने की घटनाएं रहती थीं सुनने और पढने को मिलती थीं। नारी-पुरुष का आपसी आकर्षण प्राकृतिक और स्वाभाविक है परन्तु वह किस प्रकार का संयमित हो यह देखने को मिलता है जब भगवान् राम भगवती सीता को प्रथम बार पुष्प बाटिका में देखते है और मोहित होते हैं परन्तु छोटे भाई के साथ होने से तत्काल स्वयं को सम्हालते हैं और कहते हैं ‘राघुवन्शिंह कर सहज सुभाऊ, मन कुपंथ पग धरहि न काऊ ‘ यही भाव संस्कारों द्वारा हमारे अंतःकरण में बहुत गहरे तक समाया हुआ है और दूसरी ओर हम अन्य संस्कृतियों का अनुँकरण कर नारी को भोग्या और सहज उपलब्ध मानते हैं जहां एक हेलो हाय के पश्चात कोई न कोई बाला सहज रूप से डेट पर आपके साथ हो लेती है और थोड़ा सा धन व्यय कर सहमति से उसके साथ मनमानी करते हैं, जिसका परिणाम है कि उन संस्कृतियों में शायदही कोई बालिका युवावस्था पूर्व यौनानुभाव से बचती हो और बहुत बड़े परिणाम में १३ वर्ष तक की बालिकाएं गर्भ धारण कर लेती हैं। 
आज हम बाह्य रूप में तो आधुनिकता और आधुनिक प्रगति की दौड़ में सम्मिल्लित हो गए हैं परन्तु अंतःकरण से उन्ही पुराने संस्कारों में जकड़े हुए हैं। दिखावे के रूप में बच्चों को पूर्ण और अनावश्यक स्वतंत्रता प्रदान करते हैं, उनकी निजता का ध्यान रखते हुए अलग कमरा, एकांत में कहीं भी अपने मित्रों से मिलने की छूट प्रदान करते हैं और उसी का परिणाम आज समाज के प्रत्येक क्षेत्र में बढ़ते दिख रहे यौन अपराध हैं, फिर चाहे वह धर्म का क्षेत्र हो, न्याय का क्षेत्र हो, राजनीति का या मीडिया का, चाहे आशाराम हों, तहलका के तरुण तेजपाल, पूर्व जज या राजनेता एक बात इन सभी में सामान्य है कि जिन युवतियों का यौन उत्पीडन इनके द्वारा हुआ वह बन्दूक या चाकू की नोक पर नहीं हुआ, उस यौन अपराध में युवतियों की इस अनाचार को सहने के पीछे कुछ पाने की लालसा थी। कहीं मोक्ष तो कहीं पदोन्नति, नौकरी या ख्याति और धन। पुरुष को परमात्मा से शारीरक संरचना में ऐसा वरदान मिला है कि उसकी इक्षा के विरुद्ध उसके साथ यौनाचार नहीं हो सकता जबकि स्त्री इतनी भाग्यशाली नहीं है, ऐसे में नारी को अपनी अस्मिता बचाने के लिए स्वयं सतर्क रहना ही पड़ेगा. क्या आज नारी अपनी स्वतंत्रता के नाम पर निज उत्तेजनात्मक कायावयवों को प्रदर्शित करने वाले परिधान धारण नहीं करती? आज स्त्रियों के प्रति बढ़ते अपराधों के लिए आज का परिवेष और स्त्री स्वयं उत्तरदायी है। यदि स्त्री चाहती है कि समाज उसमें अपनी माँ, बहन और अच्छे मित्र की छवि देखे तो उसे अपने आचरण को गरिमापूर्ण बनाना होगा और समाज के समक्ष उसी रूप में प्रस्तुत करना होगा। आज सिनेमा और बुद्धू बक्सा समाज और बच्चों को सर्वाधिक प्रवाभित करने वाले साधन हैं जिनके द्वारा आज हम बच्चे को बचपन से स्त्री को किस रूप में दिखा रहे हैं? आज के इस औद्योगिक और विज्ञापन के बाजारू युग में यदि सर्वाधिक विज्ञापन किसी का हुआ है तो वह नारी है, किसी भी उत्पाद का विज्ञापन हो बगैर स्त्री के पूरा नहीं होता। चाहे वाहन का विज्ञापन हो, पुरुष परिधान का या सेविंग क्रीम का विज्ञापन हर विज्ञापन में स्त्री का विद्रूप स्वरूप ही सामने आता है। एक परफ्यूम के विज्ञापन में जिस प्रकार अर्धनग्न उत्तेजनात्मक रूप में कई बालाएं पुरुष के चारों ओर लिपट जाती हैं, इसी प्रकार स्वास्थ्य वर्धक औषधि के विज्ञापन में पुरुष की बलिष्ठ काया को जिस वासनात्मक रूप में निहारती है ये स्त्री की गरिमा को बाजारू बना देती है और बचपन से बच्चे के मष्तिष्क में नारी माँ-बहन के रूप में न होकर एक उत्पाद के साथ सहज और मुफ्त में उपलब्द्ध बाजारू औरत के रूप में व्याप्त हो जाती है। इन विज्ञापनों के लिए इन बालिकाओं को बन्दूक की नोंक पर विवश नहीं किया जाता है। आज के इन अपराधों के लिए केवल पुरुष समाज को और कानून को कोसने वाले नारी संघटनों को सोचना पड़ेगा और उसे बाजारू छवि से मुक्त करना होगा अन्यथा कितने भी कड़े क़ानून बनालें और बहस करलें ये अपराध तब तक समाप्त नहीं होंगे जब तक लडकी सहज रूप से डेट के नाम पर एक प्याला मदिरा और एक बर्गर में उपलब्ध न हो जाए. आज हमारे आदर्श बदल गए हैं, सीता सावित्री के स्थान पर आज हमारे आदर्श वो सिनेमा तारिकाएँ हैं जो विवाह पूर्व तीन-चार पुरुषों के साथ लम्बे समय तक अन्तरंग रूप से रह चुकी हैं, छोटे छोटे बच्चे ‘चोली के पीछे क्या है’ ? ढूँढने में लगे हैं फिर समाज को इसके परिणाम तो भोगने ही पड़ेंगे.
आज हर प्रकार के बढ़ते अपराधों के पीछे मदिरा के चलन का भी बहुत बड़ा हाथ है. पाश्चात्य संस्कृति का अन्धानुकरण करते हुए अभिजात्य वर्ग में इसका चलन बहुत अधिक बढ़ गया है. कोई भी अवसर हो, उत्सव या आवश्यक मंत्रणा बैठक बगैर मदिरा के पूर्ण नहीं होती. यह वर्ग विद्वान् और धनवान है अतएव इसके पक्ष में अकाट्य तर्क भी प्रस्तुत करने में पीछे नहीं रहता है. जबकि मदिरा पान की स्थिति में गाडी चलाना अपराध है तब मदिरा पान करके कोई सार्थक निर्णय लेना कैसे सही है? मदिरा पान आज अनावश्यक स्टेटस सिम्बल बन गया है. तहलका के तरुण तेजपाल ने कहा लडकी के साथ जो हुआ वह मदिरा के नशे में हुआ. जब सब जानते हैं तब मदिरा छोड़ क्यों नहीं देते. इस मदिरा के कारण उस तेजपाल को जिसने कभी अपनी खोजी पत्रकारिता से तहलका मचा दिया था पूरे विश्व के सामने न केवल लज्जित होना पड़ा हो सकता है जेल भी जाना पड़े .

यदि वास्तव में हम समाज में स्त्रियों के प्रति नित्यप्रति बढ़ते अपराधों को रोकना चाहते है तो इस आधुनिकता की अंधी दौड़ से हट कर बच्चों को प्रारम्भ से उच्च संस्कारों से संस्कारित करना होगा और नारी को सौम्य एवं गरिमामय रूप में प्रस्तुत करना होगा . भारत की संस्कृति भिन्न हैं यहाँ की बालाएं योग्य, मेघावी और आत्मसम्मान की रक्षा करने में समर्थ हैं. आज वे जीवन के हर क्षेत्र में बढ़-चढ़ कर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर रहीं हैं; ऐसे में महिला संघठनों को तत्काल उन सभी विज्ञापनों पर जिनमें उनकी गरिमा को गिराया जाता है न केवल प्रतिबंध लगवाना होगा अपितु कठोर दंड का भी प्राविधान करना होगा, इसी प्रकार नारी सौन्दर्य के नग्न प्रदर्शन वाले आईटम गीतों और दृश्यों को फिल्माने और दिखाने पर रोक लगानी होगी क्योकि महिला के साथ अभद्र व्यवहार के लिए केवल कठोर क़ानून से काम नहीं बनेगा पुरुषों और समाज को नारी के गरिमामय रूप के दर्शन फिर से कराने होंगे और उनके दिल में श्रद्धा और सम्मान का भाव संस्कारित करना होगा .

Thursday, September 26, 2013

नागरवाला से वाहनवती तक

                 नागरवाला से वाहनवती तक एक लम्बा समय व्यतीत हो चुका है। केवल नाम बदले हैं शेष सब कुछ वैसा ही है। सुना था इतिहास अपने आप को दोहराता है; लेकिन इतनी शीघ्र दोहराएगा अपेक्षा नहीं थी। २१ मई १९७१ को सोनिया गांधी की सास और भारत की प्रधानमंत्री श्रीमती इन्द्रागांधी की आवाज में एक फ़ोन स्टेट बैंक के पार्लियामेंट स्ट्रीट शाखा के वरिष्ठ कैशिअर वेदप्रकाश महरोत्रा के पास आता है कि मैं रुश्तम सोहराब नागरवाला को भेज रही हूँ उसे अविलम्ब ६० लाख रु दे दें। नागरवाला रा. में कप्तान थे और इन्द्रागांधी के विशवास पात्र थे। नागरवाला बैंक पहुंचे और फ़ोन के अनुसार उनको ६० लाख रु दे दिए गए, और वे वह रु लेकर निकल गए। जब महरोत्रा प्रधानमंत्री कार्यालय से ६० लाख रु की रसीद लेने पहुंचे तो बताया गया इन्द्राजी ने कोई रुपया नहीं मंगाया था। कैशिअर के पैरों तले जमीन खिसक गई, उसने पुलिश थाने में प्रथिमिकी दर्ज करवाई, पुलिश तत्काल हरकत में आई और उसी दिन नागरवाला को बंदी बना लिया गया और लगभग पूरा धन बरामद हो गया। न्यायालय में महरोत्रा और नागरवाला ने आश्चर्यजनक रूप से अपना अपराध मान लिया और अति तत्परता से मात्र १० मिनट में ही न्यायालय की सुनवाई समाप्त हो गई और नागरवाला को चार वर्ष का करावाष का दंड दे दिया गया, न तो कैशिअर से पूछा गया कि उसने इतनी बड़ी धनराशि बगैर किसी रषीद के या लिखित आदेश के क्यों दे दी और न ही यह पता किया गया कि नागरवाला इन्द्राजी की आवाज निकाल भी सकता है या नहीं। नागरवाला ने अपराध स्वीकार किया और उसे सही मानकर दण्डित कर दिया गया, इतना ही नहीं बाद में जब नागरवाला ने कुछ कहने की इक्षा व्यक्त की तो संदिग्ध परिस्थितियों में उसकी मृत्यु हो गई और इस सम्पूर्ण घटना की जांच के लिए नियुक्त जांच अधिकारी डी.के. कश्यप की भी संदिग्ध तरीके से कार दुर्घटना में मृत्यु हो गई अब किसका सहस था जो जांच करके वास्तविकता को सामने ला पाता और वही हुआ वास्तविक सच कभी सामने नहीं आया।  (http://archive.tehelka.com/story_main34.asp?filename=Ne201007TheNAGARWALA.asp)
                        यह मात्र एक संयोग है या कुछ और कि गांधी परिवार की और देश की शसक्त महिला (इन्द्रागांधी की बहु) सोनिया गाँधी की  की आवाज में अभी ५ सितम्बर २०१३ को एक फोन भारत के महाधिवक्ता (एटार्नी जनरल ) जी. ई. वाहनवती को न्यूयार्क से आया और उन्हें निर्देश दिया गया कि कोयला घोटाले से सम्बंधित मामले में न्यायालय में बहुत तत्परता न दिखाएँ और इस केस की गति को धीमा रखें, जरूरत से  अधिक कर्मठ बनने की आवश्यकता नहीं है। जितना कहा जा रहा है उतना करें वर्ना अपना पद छोड़ दें। ध्यान रहे कि उस समय सोनियाजी न्यूयार्क में अपना इलाज कराने गई हुई थीं। वाहनवती यदि बात मान लेते और अपना पद छोड़ देते या इस केस की सुनवाई में शिथिलता वर्तते तो कोई बात ही नहीं उठती ; परन्तु उन्होंने इस फोन काल के विषय में बता दिया और बात बिगड़ गई अब फर्जी काल के लिए किसी को तो बलि का बकरा बनाया ही जाएगा, आखिर मामला सीधा गांधी परिवार से जुड़ा है। उपरोक्त  दोनों फोन कालों में समानता है दोनों गांधी परिवार से सम्बंधित हैं, दोनों घोटालों से सम्बंधित हैं। कांग्रेस का पुराना इतिहास रहा है कि वह अपने अपराधों को छिपाने में और अपने अपराधी लोगों को बचाने में सिद्ध हस्त है, फिर चाहे नागरवाला कांड हो, बोफोर्स दलाली कांड हो, कोयला घोटाला हो या आदर्श घोटाले सहित अनेकानेक घोटालों के दोषियों को बचाया गया है। चाहे १९८४ के दंगों में लगभग २७०० सिखों की हत्या के दोषी भगत हों, जगदीश टाइटलर हों या सज्जन कुमार और बात जब गांधी परिवार से सम्बंधित हो तो चाहे बाड्रा का जमीन घोटाला हो या ३ दिसंबर २००६ को अमेठी में राहुल गांधी और उनके दोस्तों द्वारा  २४ वर्ष की लडकी सुकन्या से किया गया सामूहिक बलात्कार का मामला हो पूरी पार्टी बेशर्मी के साथ बचाव में आजाती है।(http://shashi-dubey.blogspot.in/2013/03/rahul-gandhi-involved-in-rape.html) जिस प्रकार अपराधी जनप्रतिनिधियों के विरुद्ध न्यायालय के आदेश को अंगूठा दिखा कर अध्यादेश पारित करके अपने दल के राशिद मसूद सहित तमाम अपराधियों को बचाने का षड्यंत्र किया जा रहा है, वह इस दल की सहज अपराधी मानसिकता और व्यवहार को समझने के लिया पर्याप्त है। 

Saturday, September 14, 2013

मुज़फ्फर नगर में प्रायोजित नर संघार

        पिछले दिनों मुज़फ्फर नगर में  कुछ हुआ वह बहुत ही दुखद और पीड़ा दायक था। प्रश्न उठता है कि जो कुछ हुआ क्या अचानक हुआ या पूर्व नियोजित था ? तथ्यों को देखने पर प्रतीत होता है यह पिछले कई महीनों से मुज़फ्फर नगर में चल रहा था; एक विशेष समुदाय के लोगों द्वारा बहु संख्यक समुदाय की बहू बेटियों के साथ निरंतर छेड़ छाड़ और बलात्कार की घटनाएं हो रहीं थीं; परन्तु प्रशासन आँखें बंद किये बैठा रहा। कुछ घटनाएं बलात्कार की जो प्रकाश में आईं, दिसंबर २१, २४, २९, ३०/२०१२ को १८ फरवरी २०१३ को, ३ अप्रैल, ३ जून २०१३ को, जुलाई ८ एवं २९ को, फिर अगस्त २३, २४ एवं २७ को (http://indiawires.com/25917/news/national/series-of-rapes-behind-muzaffarnagar-riots/) आखिर एक समुदाय को कब तक दुसरे समुदाय के अत्याचारों को सहन करना चाहिए था, क्या उनकी बहन बेटियों की इज्जत लुटती रहे और वे दर्शक बन कर देखते रहें या प्रतिकार करें। इतनी दर्दनाक घटनाओं के बाद भी प्रशासन  की निद्रा नहीं टूट रही थी और लोगों में अशंतोष तथा गुस्सा बढ़ता जा रहा था। कायदे से प्रशासन को चाहिए था कि अपराधी की धर्म जाति का विचार किये बगैर, वे  तत्काल पकडे जाते और पीड़ितों को स्वान्तना देनी चाहिए थी; परन्तु अधिकारी ऐसा कैसे करते, दुर्गाशक्ति नागपाल का उदहारण उनके सामने था। ऐसे में  एक दिन तो लावे को  फूटना ही था, २७ अगस्त को कवल गाँव में एक छेड़ छाड़ की घटना का विरोध करने पर हिंसा प्रारम्भ हो गई जिसमें तीन लोगों की म्रत्यु हुई, जिसमें छेड़ छाड़ करने वाला मुसलमान युवक सहनवाज़ कुरेषी था और जाट लडकी के दो भाई सचिन और गौरव सिंह थे; परन्तु पुलिष ने छेड़ छाड़ और जाट युवकों की ह्त्या को संज्ञान में ना लेकर, केवल मुसलमान युवक को मारने के अपराध में पीड़ित लडकी के परिवार वालों को ही बंदी बना लिया था ( http://en.wikipedia.org/wiki/2013_Muzaffarnagar_riots) प्रशासन पूरी तरह अल्पसंख्यक समुदाय के साथ था। हालात कश्मीर घाटी जैसे बनाए जा रहे थे, जहां कश्मीरी पंडितों की बहु बेटियों के साथ मुस्लिम आतंकवादी सरेआम बलात्कार करते थे और प्रशासन कुछ नहीं सुनता था, अंत में वे वहां से भागने को विवश हुए और घाटी हिन्दू विहीन हो गई; ठीक वही हालात समाजवादी पार्टी द्वारा मुज़फ्फरनगर में उत्पन्न किये जा रहे थे, आखिर समाजवादी पार्टी को मुसलमानों के वोट चाहिए थे। 
              इस घटना के विरोध में जाटों ने २८ अगस्त को पंचायत करने का निश्चय किया जिसे क़ानून व्यवस्था का उल्लेख कर प्रशासन ने रोक दिया और जाटों ने क़ानून का साथ देते हुए पंचायत टाल दी; परन्तु दूसरी ओर ३० अगस्त शुक्रवार को नमाज के बाद मुसलामानों की एक बड़ी पंचायत हुई जिसमें विभिन्न राजनैतिक दलों के नेताओं ने बहुसंख्यक समुदाय के विरुद्ध भड़काऊ भाषण दिए, इन नेताओं में समाजवादी पार्टी के राशिद सिद्दीकी, बी.एस.पी. के क़दीर राणा और नूर सलीम राणा तथा कांग्रेस के सैद्दुज्जाम प्रमुख थे। इतना ही नहीं वहां प्रशासनिक अधिकारी भी उपस्थित थे। क्या केवल दो दिन बाद क़ानून व्यवस्था सुधर गई थी? क्या यह खुले तौर पर सरकार द्वारा एक पक्षीय व्यवहार नहीं था? फिर ३१ अगस्त को जाटों की पंचायत हुई; परन्तु पंचायत से वापस जाते हुए खातिमा रोड पर एक परिवार की कार पर हमला करके उनकी कार जला दी गई, परन्तु सरकार अभी भी निश्चिन्त थी। निश्चित यह सब कुछ किसी भी समुदाय के लिए सहन शक्ति की पराकाष्ठा थी। जाटों द्वारा बहु बेटी बचाओ अभियान के अंतर्गत ७ सितम्बर शनिवार को एक बड़ी पंचायत बुलाई गई। इस पंचायत में निश्चित ही भड़काऊ भाषण होने थे और हुए, पंचायत के बाद जब लोग वापस जा रहे थे तब गंग नहर के किनारे मुसलमान गुंडों ने अचानक आक्रमण कर दिया और तमाम लोगों को मौत के घाट उतार कर नहर में फेंक दिया और उनके ट्रेक्टर भी नहर में फेंक दिए गए, अभी तक १७ ट्रेक्टर नहर से निकाले जा चुके हैं; चूंकि केवल बहुसंख्यक समाज के लोग मारे जा रहे थे अतएव सरकार और मुसलमान नेता निश्चिन्त थे; परन्तु यह हिंसा की आग अचानक गाँवों में फ़ैल गई और अल्पसंख्यक समुदाय के निर्दोष लोग भी मारे जाने लगे तब सरकार हरकत में आई, लेकिन राजनैतिक दलों का काम हो चुका था, वोटों का ध्रुवीकरण हो चुका था, समाज में वैमनस्य बढ़ चुका था। 
              इस सबसे एक बात निश्चित है कि साम्प्रदायिक दंगे तभी होते हैं जब सरकारों द्वारा किसी एक समुदाय के साथ पक्षपात पूर्ण व्यवहार किया जाता है। जब देश का प्रधानमंत्री ही बेशर्मी के साथ कहता हो कि इस देश के संसाधनों पर पहला अधिकार मुसलमानों का है तब दंगे और वैमनस्यता कैसे रोकी जा सकती है? एक बात और निश्चित है कि दंगे की पहल भी कभी बहुसंख्यक समुदाय द्वारा नहीं की जाती है, वह तो पानी सर से ऊपर निकल जाने के बाद केवल प्रतिकार करता है। चाहे वह गुजरात हो (जहां पहले २७ फरवरी २००२ को गोधरा में एक रेल के डब्बे के ५८ यात्रियों को जो हिन्दू थे मुसलमान गुंडों ने ज़िंदा जला दिया था ) या मुजफ्फरनगर हो। हाँ हिन्दुओं के मरने पर कोई हो हल्ला नहीं मचता, किसी को अपराधबोध नहीं होता फिर चाहे गोधरा में मारे गए हिन्दू हों या मुजफ्फरनगर में या कश्मीर घाटी में या १९८४ के दंगों में २७०० सिक्ख क़त्ल कर दिए गए हों; परन्तु अल्पसंख्यकों की म्रत्यु पर सालों साल मातम मनाया जाता है। जबकि मौत किसी की भी हो पीड़ादायक है और हर मृत्यु पर सरकार सहित सभी को पूरी तरह संवेदनशील होना चाहिए।  किसी भी सरकार के लिए धर्म या जाति के आधार पर किसी भी प्रकार का पक्षपात उस देश के लिए सदा घातक है और कभी भाईचार नहीं बन सकेगा। अपराधी केवल अपराधी होता है उसका कोई धर्म या जाति नहीं होती जिस दिन ये सरकारें और नेता इस बात को समझ लेंगे उस दिन तमाम समस्याओं का अपने आप निदान हो जाएगा।  
                  उपरोक्त सभी बातें १७ सितम्बर को आजतक चेनल और इंडिया टुडे द्वारा दिखाए गए वीडियो द्वारा सिद्ध हो गई है। मुज़फ्फरनगर में कोई हिन्दू-मुस्लिम दंगा ना होकर सपा के आजमखान के गुंडों द्वारा केवल हिन्दुओं का नरसंघार कर राजनैतिक लाभ लेने की योजना थी और पश्चिम उत्तरप्रदेश के मुस्लिम बाहुल जिलों से हिन्दू परिवारों को पलायन करने पर विवश करना है, जिसमें कांग्रेस बराबर की सहयोगी है क्यों कि भारत का प्रधानमन्त्री केवल मुस्लिमों से कैम्पों में मिले और हिन्दू पीड़ितों से केवल सड़क पर ही मिल लिए। २००२ के लिए रात-दिन आंसू बहाने वाले न्यूज चैनल और धर्मनिर्पेक्ष तीस्ता सीतलवाड़ और आम आदमी पार्टी के लोग अब चुप क्यों हैं?