न केवल भारत में अपितु सम्पूर्ण विश्व
में जब जब अन्याय और अत्याचार बढ़ा है तब तब प्रतिक्रिया स्वरुप नई परिस्थितियों का
जन्म हुआ है (यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवत ....) और उन्होंने समाज में एक नई
आशा का संचार भी किया, परन्तु वे बहुत समय तक उस रूप में अक्षुण नहीं रही हैं और
लोगों की अपेक्षाओं को आशानुरूप पूर्ण नहीं किया है. जब विश्व के कई अलग अलग
हिस्सों में औद्योगीकरण के कारण कलकारखानों का चलन बढ़ा तो पूंजीवाद बढ़ा और सामान्य
व्यक्ति जिसे कामगार कहते थे, के साथ अन्याय और अत्याचार बढ़ता गया. राष्ट्र की
सत्ता पर परोक्ष या अपरोक्ष रूप से पूंजी पतियों का शाषन होगया तब उन्होंने नियम
क़ानून अपने पक्ष में बना लिए और सामान्य नागरिक गुलामों का जीवन जीने पर विवश हुआ,
उसके पास किसी प्रकार के राजनैतिक सामजिक अधिकार नहीं थे. मुट्ठीभर लोग पूरी जनता
पर अत्याचार कर रहे थे तब इस अत्याचार के विरुध्द जर्मनी के विचारक कार्ल मार्क्स
ने १८४० में साम्यवाद का विचार दिया जो पूँजीवाद के विरुद्ध एक नफरत थी और उसी के
आधार पर अनेक राष्ट्रों में क्रांति हुई जिसमे १९०५ में रूस में जारों के अत्याचार
के विरुद्ध हुई क्रांति सर्वाधिक विख्यात हुई; परन्तु इनमें से कोई भी परिवर्तन
अपने उद्येश्य में पूर्णतया सफल नहीं हुए और शनैः शनैः समाप्त हो गए. कहने को तो
सत्ता कामगार के हाथों में आई परन्तु वास्तव में क्रांति के अगुआ बने लोग ही सत्ता
के केंद्र रहे और कमोबेश जनता उसी प्रकार अगले परिवर्तन की बाट जोहने को विवश बनी
रही. वास्तव में किसी भी क्रिया के विरुद्ध प्रतिक्रिया स्वरूप जो क्रिया होती है
उसमें चिंतन और योजना का सर्वथा अभाव रहता है, अतएव वह तात्कालिक होती है, इसीलिये
उस का लाभ आन्दोलन की अगुआई करने वालों को समर्थ बनाने तक सीमित रह जाता है.
इस वैश्विक घटना के सामान ही भारत में
भी सामजिक असमानता के चलते बहु संख्यक जनता (पिछड़े, अनुचूचित जाति, जन जाति आदि)
तथाकथित सवर्णों (ब्राम्हण,क्षत्रिय,वैश्य) के अत्याचारों से त्रस्त थी. देखने में
यह जाति या वर्ग भेद दिखता है; परन्तु वास्तव में यह भी अन्य वैश्विक देशों की तरह
सामर्थ्य आधारित था, बुद्धि, अर्थ और भुज बल (सरस्वती,लक्ष्मी,दुर्गा) से युक्त
लोगों ने अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया था और शेष को दासों से भी बदतर जीवन व्यतीत
करने को विवश कर रखा था. भारत में इन तीन शक्तियों से युक्त लोगों ने अपना
जातिआधारित समूह बना लिया था, इसलिए यहाँ का भेद जाति भेद के रूप में दिखाई दिया.
१५ अगस्त १९४७ के पश्चात् आशा बंधी थी कि यह जाति भेद समाप्त होगा भारत सरकार इसके
लिए कठोर कदम उठा कर इस अभिशाप को समाप्त करेगी, परन्तु वैसा कुछ नहीं हुआ, क़ानून
तो बना परन्तु वह कागज़ पर ही रहा. इन पिछड़े हुए और पददलित किये लोगों को बराबरी पर
लाने के लिए शिक्षा, नौकरी आदि में आरक्षण की व्यवस्था भी की गई, परन्तु ईमानदारी
से नहीं, स्वतंत्र भारत में सत्ता में बैठे लोगों को शीघ्र समझ में आगया कि इन
दलितों और पिछड़ों को केवल आश्वाषनों के दम
पर वोट के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है; जब तक ये पिछड़े हैं, दलित हैं तभी तक
निर्द्वंद शाषन किया जा सकता है. परन्तु इन पिछड़े और दलित वर्ग के युवा जब राजनीति
में आए तब उन्होंने देखा कि सत्तासीन लोग किस प्रकार निरंतर उन्हें मूर्ख बना कर
धूर्तता पूर्वक राज्य कर रहे हैं, लोकनायक जयप्रकाशजी के भ्रष्टाचार एवं व्याप्त
असमानता के विरुद्ध जनान्दोलन से निकले लालूजी से जनपेक्षाएँ थीं कि वे भारतीय
राजनीति को नई दिशा देंगे, परन्तु सत्ता में आते ही उन्होंने सवर्णों के प्रति
घृणा का ऐसा भाव फैलाया कि अपने एक वर्ग विशेष को संगिठित कर निरंतर सत्ता में बने
रहने का उपक्रम किया और स्वयं उसी सत्ता के अंग बन गए जिसके विरुद्ध संघर्ष किया
था और जनता वहीं की वहीं उसी स्थिति में बनी रही. इसी प्रकार काशीरामजी और मायावती
ने सत्ता में बने रहने के लिए दलितों और सवर्णों के मध्य उसी घृणा का आश्रय लिया
(तिलक तराजू और तलवार इनमें मारो.....) और स्वयं उसी भृष्ट शाषन का अभिन्न अंग बन
कर रह गईं. न तो दलितों का कोई भला किया और न ही राष्ट्र का. १९९१ में जब
नर्सिंघराव भारत के प्रधान मंत्री बने तब उनकी सरकार अल्पमत में थी, उसे अक्क्षुन
बनाए रखने के लिए सांसद निधि के नाम पर प्रत्येक सांसद को अप्रत्यक्ष घूष की पेशकश
की गई और उसके पश्चात से लगभग सभी जनप्रतिनिधि भ्रष्टाचार और दलाली के दल दल में डूबते
चले गए, साथ ही क़ानून बनाने के अपने अधिकार का दुरूपयोग कर के अपने पक्ष में नित
नए क़ानून बना कर इन जनप्रतिनिधियों ने स्वयं को जनता से अलग सामंतों की स्थिति में
कर लिया, विभिन्न प्रकार की सुविधाएं और अधिकार अपने लिए एकत्रित कर लिए, क़ानून
इनके सामने बौना हो गया. अपराधियों दलालों मुनाफाखोर व्यापारियों और जनप्रितिनिधियों
का एक ऐसा गठबंधन बना कि अब घोटालों की बाढ़ सी आने लगी धीरे धीरे ये घोटाले लाख
करोड़ तक जा पहुंचे और इन घोटालों की भरपाई के लिए नए नए कर लगा कर महंगाई को
बेलगाम छोड़ दिया गया. जनप्रतिनिधि इतने निर्लज्ज, भृष्ट और अनैतिक हो गए कि कोई
अभद्र से अभद्र गाली भी उनके आचरण के सामने लज्जित होने लगी. नेता अति विशिष्ट
शैली के नाम पर सैकड़ों सुरक्षा कर्मियों के मध्य सुरक्षित हो गए और सामान्य
व्यक्ति भगवान् भरोसे पूर्णतः असुरक्षित हो गया, वह लूट, डकैती, बलात्कार जैसी
घटनाओं से पीड़ित किसी से व्यथा कहने योग्य भी नहीं था. सभी सरकारी विभागों में
छोटे से छोटे काम के लिए रिश्वत आवश्यक हो गई और इस रिश्वत में हिस्सा संत्री से
लेकर मंत्री तक सभी का है . ऐसे में त्राहि त्राहि करती जनता को संबल प्रदान करने
अन्ना हजारेजी और बाबा रामदेव ने भ्रष्टाचार के विरुद्ध जनआन्दोलन छेड़ा जिसे सत्ता
के मद में चूर सरकार ने निर्ममता पूर्वक कुचल दिया, जिसके कारण सामान्य जन में
जनप्रतिनिधियों और इस राजनैतिक सड़ी गली व्यवस्था के विरुद्ध एक नफरत का गुबार उठ
पड़ा और इसी नफरत को हवा देते हुए उस जनान्दोलन से आम आदमी पार्टी का अभ्युदय हुआ
जिसके मुखिया अरविन्द केजरीवाल सहित सभी सदस्यों ने सत्ता प्राप्त करने के लिए बड़े
बड़े और झूठे वादे किये और नेताओं के प्रति नफरत को खूब हवा दी , दिल्ली के
मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने जनसभा में स्पष्ट कहा कि भारत सरकार का
गृहमन्त्री दिल्ली पुलिस से धन उगाई करता है, निश्चित यह गंभीर आरोप है जो
सवैधानिक पद पर आसीन एक उत्तरदायी व्यक्ति ने लगाया है, यदि यह झूठ था तो केजरीवाल
को पद पर बने रहने का एक पल भी अधिकार नहीं था उन्हें बंदी बना लिया जाना चाहिए था
और यदि यह सत्य था तो शिंदे को तत्काल हटा कर बंदी बना लेना चाहिए था. परन्तु वैसा
कुछ नहीं हुआ. केजरीवाल ने पूर्व राजनेताओं के विरुद्ध केवल नफरत बढानी थे और
गृहमन्त्री द्वारा पूर्व की भाँती निर्लज्जता का परिचय देना था. जनता ने आआप पर विश्वाष
किया और हर बार की तरह फिर ठगी गई. सत्ता प्राप्ति के साथ ही सभी कसमें वादे स्वतः
टूटने लगे और सत्ता का रंग चढने लगा. आज स्थापित राजनैतिक दलों को आम आदमी पार्टी
से यही खास परेशानी है कि जिस प्रकार के झूठे वादे और नौटंकी चुनाव पूर्व ये दल
करते थे; यह नवजन्मा दल इन सबसे कहीं आगे निकला और उसी प्रकार का ड्रामा करने को
इन्हें न केवल विवश होना पड़ा(संजय निरूपम द्वारा धारण, कई मुख्यमंत्रियों द्वारा
निज सुरक्षा में कमी दिखाना आदि), अपितु जनाधार भी खिसका और सत्ता सुख से भी विमुख
होना पड़ा. आम आदमी तो फिर वहीं का वहीं है जहाँ पहले था. नफरत की प्रतिक्रिया से
कभी भी किसी का कोई भला नहीं होने वाला है, हाँ आआप के नेताओं को अवश्य सत्ता सुख
मिल गया है और कुछ समय तक मिलता भी रहेगा.
जनप्रतिनिधियों में व्याप्त भ्रष्टाचार और
अहंकार की जड़ में इनके द्वारा ही अपने पक्ष में क़ानून बनाने की विशेष सुविधा है
जिसे तत्काल समाप्त किया जाना चाहिए. सभी जनप्रतिनिधियों के विशेषाधिकार और
विभिन्न सुविधाओं में कोटे समाप्त कर दिए जाने चाहियें, इनको दी जाने वाली विकास
निधि समाप्त करने सहित इन्हें किसी भी लाभ के पद पर नियुक्ति नहीं मिलनी चाहिए.
यदि वेतन कम हो तो उसे निश्चित बढ़ाया जाए, परन्तु इनके किसी भी छोटे बड़े अपराध की
जांच प्राथमिकता के आधार पर निश्चित समयावधि में त्वरित की जानी चाहिए. जब तक
इन्हें विशेष सुविधा प्राप्त रहेगी जन प्रतिनिधि और सामान्य जन के मध्य दूरी
निरंतर बढ़ती रहेगी और जनप्रतिनिधि बनने के लिए चुनाव व्यय बढ़ता रहेगा जो
भ्रष्टाचार का मूल कारण है.
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