Monday, February 17, 2014

कस्मसाते सपने

भारत में स्वतंत्रता के पश्चात् से ही कांग्रेस के संरक्षण में जिस प्रकार निरंतर भृष्टाचार बढ़ता गया और आम आदमी उसकी तपन में झुलसता रहा, अलग अलग सिद्धांतों को लेकर अनेकानेक राजनैतिक दल सामने आए और हरबार एक नई आशा का संचार आम आदमी के अन्दर उदय होने के पूर्व ही दम तोड़ गया क्योंकि सभी राजनीतिक दल उसी गटर का जल पी कर उसी नाली के कीड़े बन गए, जिसमें कांग्रेस आकंठ डूब चुकी थी. संघ के चरित्रवान और अनुशाषित संघठन से उत्त्पन्न भारतीय जनसंघ, जो बाद में भारतीय जनता पार्टी हो गई या बेबस और शोषित कामगारों को न्याय दिलाने वाली कमुनिष्ट पार्टी हो या जय प्रकाशजी के आन्दोलन से निकले लालू की पार्टी या बोफोर्स के नाम पर जनभावनाओं से खेलने वाले विश्वनाथ प्रताप सिंह सभी ने एक बार तो जनाकांक्षाओं को आशा की किरण दिखाई लेकिन तत्काल ही उन आशाओं और अपेक्षाओं पर तुषारापात हो गया और आम आदमी ठगा का ठगा सा रह गया, मंत्री से लेकर संतरी तक पूरा सरकारी तंत्र भृष्टाचार में लिप्त हो गया और बड़े व्यापारी घराने, दलाल, तस्कर, मीडिया और अपराधियों का सरकार के साथ गठबंधन हो गया नेता और राजनैतिक दल अनैतिकता के हाथों बिक चुके हैं, इतना ही नहीं चुनिन्दा ईमानदार कर्मचारियों और संवैधानिक संस्थाओं का काम करना कठिन ही नहीं असंभव हो गया, अनैतिक लोगों को क़ानून का भय समाप्त हो गया और नैतिकता के पुजारी, अनैतिक कानून से भयभीत होने लगे, ऐसे में अन्ना एक नई आशा की किरण ले कर जनता के बीच आए, जिसे निरंकुश सरकार ने बुरी तरह कुचल दिया, परन्तु उस आन्दोलन से दिल्ली में अरविन्द केजरीवाल के नेतृत्व में एक नई सोच का उदय हुआ जिसका नाम था “आम आदमी पार्टी” और इस नई पार्टी को दलित,व्यथित आम आदमी का प्रचंड समर्थन भी प्राप्त हुआ, अपेक्षा के विपरीत इस दल को दिल्ली विधानसभा में २८ सीटें मिल गईं और भृष्ट कांग्रेस ने राजनैतिक खेल खेलते हुए आआप को बिन मागा समर्थन दे कर सीमित अधिकारों के साथ सत्तासीन कर दिया, काम कठिन था, वादे बड़े और विपक्क्ष में बैठने के आधार पर किये गए थे लेकिन अपने ही गले आ पड़े ऐसे में केजरीवाल के आचरण से स्पष्ट झलकने लगा कि वो दूसरों के माथे ठीकरा फोड़ कर सत्ता से हटने का सहज मार्ग तलाश रहे हैं, और इसके लिए उन्होंने हठधर्मिता पूर्वक जनलोकपाल का बहाना बना कर सत्ता छोड़ दी और आम आदमी एक फिर किंकर्तव्यविमूढ़ ठगा सा रह गया.
दुनिया में तीन प्रकार के लोग होते हैं १. वे जो बाधाओं के भय से कोई कार्य प्रारम्भ ही नहीं करते २. वे जो कार्य तो प्रारम्भ करते हैं लेकिन बाधाओं के आने पर उस कार्य को छोड़ देते हैं, इनके प्रकृति पलायनवादी होती है और ऐसे लोग किसी दुसरे का तो क्या अपना भी भला नहीं कर सकते ३. वे जो एक बार कार्य प्रारम्भ करने के पश्चात समाप्त किये बगैर नहीं छोड़ते. केजरीवाल अभी तक के अपने आचरण से दुसरे प्रकार के व्यक्ति मालूम पड़ते हैं, जो एक वादा करते हैं कसमें खाते है और अगले ही पल उसे तोड़ देते हैं. वे अनेक आन्दोलनों और संस्थाओं से जुड़े लेकिन सभी से पलायन कर गए, कहीं भी स्थायित्व प्राप्त नहीं किया, इसी प्रकार दिल्ली के मुख्यमंत्री बने लोगों की आकांक्षाओं को उड़ान दी और जनमानस को निराश करते हुए दो माह की अल्पावधि में ही पलायन कर गए. इसमें एक और बात है नवजात राजनैतिक दल को जो अप्रत्याषित सफलता मिली उसने इनकी आकांक्षाओं को अत्यधिक बढ़ा दिया और कुछ माह पश्चात् होने वाले लोकसभा चुनावों में उसी प्रकार की सफलता की आश लिए निष्प्रयोजन कार्य करने में तत्पर हो गए जिससे उपहास के पात्र तो बने ही आम जनता में शाख भी गई. “बिना विचारे जो करे, सो पाछे पछताए. काम बिगारे आपनो, जग में होत हंसाय” दिल्ली की सत्ता पर कब्जा करने की हडबडी में, इन्होने वही गलती दोहराई जो चन्द्रगुप्त मौर्य ने की थी, जब वो नन्द वंश के विरुद्ध कौटिल्य के साथ सघर्ष कर रहे थे तो मगध जैसे शक्तिशाली साम्राज्य के विरुद्ध पाटलिपुत्र में विद्रोह खडा करने का प्रयास किया और परास्त हुए, उस अवस्था में दोनों क्षद्म वेश में छुपते हुए एक वृद्धा के घर में आश्रय लेने पहुंचे तो रात्रि में गर्म खिचडी खाने के लिए उतावले पन में चन्द्रगुप्त ने बीच से खिचडी खा ली और मुह जला बैठे, तब उस वृद्धा ने कहा “तुमने भी वही गल्ती की जो चन्द्रगुप्त ने की, जिस प्रकार पहले बाहर के राज्यों पर अधिकार करना चाहिए था, उसी प्रकार गर्म खिचडी किनारे से खानी चाहिए थी” केजरीवाल को भी पहले दिल्ली को सुधारना चाहिए था और दिल्ली की लोक सभा सीटों को कब्जे में कर एक दो अन्य राज्यों पर कब्ज़ा कर वहां भृष्टाचार मुक्त सुषाशन करके दिखाना चाहिए था. यदि जनलोकपाल पर सहमती नहीं बन रही थी अपने तरीके का लोकायुक्त लेकर आते और अपने राजनैतिक वादे पूरे करते हुए पूर्व के भृष्ट नेताओं और अधिकारियों को दण्डित करवाते तो लोक सभा तो स्वयं कब्जे में आ जाति; परन्तु केजरीवाल के पलायनवादी व्यवहार ने आम आदमी को एक बार पुनः निराश किया है. अब यह भविष्य ही बताएगा कि केजरीवाल भी पूर्व के लोगों की भाँती सत्तालोलुप और महत्वाकांक्षी हैं या उससे अलग कुछ अच्छा कर गुजरने की लालसा रखते हैं? भविष्य में जो कुछ भी हो लेकिन उनके अभी तक के आचरण ने तो लोगों को निराश और हताश ही किया है.

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