Thursday, September 26, 2013

नागरवाला से वाहनवती तक

                 नागरवाला से वाहनवती तक एक लम्बा समय व्यतीत हो चुका है। केवल नाम बदले हैं शेष सब कुछ वैसा ही है। सुना था इतिहास अपने आप को दोहराता है; लेकिन इतनी शीघ्र दोहराएगा अपेक्षा नहीं थी। २१ मई १९७१ को सोनिया गांधी की सास और भारत की प्रधानमंत्री श्रीमती इन्द्रागांधी की आवाज में एक फ़ोन स्टेट बैंक के पार्लियामेंट स्ट्रीट शाखा के वरिष्ठ कैशिअर वेदप्रकाश महरोत्रा के पास आता है कि मैं रुश्तम सोहराब नागरवाला को भेज रही हूँ उसे अविलम्ब ६० लाख रु दे दें। नागरवाला रा. में कप्तान थे और इन्द्रागांधी के विशवास पात्र थे। नागरवाला बैंक पहुंचे और फ़ोन के अनुसार उनको ६० लाख रु दे दिए गए, और वे वह रु लेकर निकल गए। जब महरोत्रा प्रधानमंत्री कार्यालय से ६० लाख रु की रसीद लेने पहुंचे तो बताया गया इन्द्राजी ने कोई रुपया नहीं मंगाया था। कैशिअर के पैरों तले जमीन खिसक गई, उसने पुलिश थाने में प्रथिमिकी दर्ज करवाई, पुलिश तत्काल हरकत में आई और उसी दिन नागरवाला को बंदी बना लिया गया और लगभग पूरा धन बरामद हो गया। न्यायालय में महरोत्रा और नागरवाला ने आश्चर्यजनक रूप से अपना अपराध मान लिया और अति तत्परता से मात्र १० मिनट में ही न्यायालय की सुनवाई समाप्त हो गई और नागरवाला को चार वर्ष का करावाष का दंड दे दिया गया, न तो कैशिअर से पूछा गया कि उसने इतनी बड़ी धनराशि बगैर किसी रषीद के या लिखित आदेश के क्यों दे दी और न ही यह पता किया गया कि नागरवाला इन्द्राजी की आवाज निकाल भी सकता है या नहीं। नागरवाला ने अपराध स्वीकार किया और उसे सही मानकर दण्डित कर दिया गया, इतना ही नहीं बाद में जब नागरवाला ने कुछ कहने की इक्षा व्यक्त की तो संदिग्ध परिस्थितियों में उसकी मृत्यु हो गई और इस सम्पूर्ण घटना की जांच के लिए नियुक्त जांच अधिकारी डी.के. कश्यप की भी संदिग्ध तरीके से कार दुर्घटना में मृत्यु हो गई अब किसका सहस था जो जांच करके वास्तविकता को सामने ला पाता और वही हुआ वास्तविक सच कभी सामने नहीं आया।  (http://archive.tehelka.com/story_main34.asp?filename=Ne201007TheNAGARWALA.asp)
                        यह मात्र एक संयोग है या कुछ और कि गांधी परिवार की और देश की शसक्त महिला (इन्द्रागांधी की बहु) सोनिया गाँधी की  की आवाज में अभी ५ सितम्बर २०१३ को एक फोन भारत के महाधिवक्ता (एटार्नी जनरल ) जी. ई. वाहनवती को न्यूयार्क से आया और उन्हें निर्देश दिया गया कि कोयला घोटाले से सम्बंधित मामले में न्यायालय में बहुत तत्परता न दिखाएँ और इस केस की गति को धीमा रखें, जरूरत से  अधिक कर्मठ बनने की आवश्यकता नहीं है। जितना कहा जा रहा है उतना करें वर्ना अपना पद छोड़ दें। ध्यान रहे कि उस समय सोनियाजी न्यूयार्क में अपना इलाज कराने गई हुई थीं। वाहनवती यदि बात मान लेते और अपना पद छोड़ देते या इस केस की सुनवाई में शिथिलता वर्तते तो कोई बात ही नहीं उठती ; परन्तु उन्होंने इस फोन काल के विषय में बता दिया और बात बिगड़ गई अब फर्जी काल के लिए किसी को तो बलि का बकरा बनाया ही जाएगा, आखिर मामला सीधा गांधी परिवार से जुड़ा है। उपरोक्त  दोनों फोन कालों में समानता है दोनों गांधी परिवार से सम्बंधित हैं, दोनों घोटालों से सम्बंधित हैं। कांग्रेस का पुराना इतिहास रहा है कि वह अपने अपराधों को छिपाने में और अपने अपराधी लोगों को बचाने में सिद्ध हस्त है, फिर चाहे नागरवाला कांड हो, बोफोर्स दलाली कांड हो, कोयला घोटाला हो या आदर्श घोटाले सहित अनेकानेक घोटालों के दोषियों को बचाया गया है। चाहे १९८४ के दंगों में लगभग २७०० सिखों की हत्या के दोषी भगत हों, जगदीश टाइटलर हों या सज्जन कुमार और बात जब गांधी परिवार से सम्बंधित हो तो चाहे बाड्रा का जमीन घोटाला हो या ३ दिसंबर २००६ को अमेठी में राहुल गांधी और उनके दोस्तों द्वारा  २४ वर्ष की लडकी सुकन्या से किया गया सामूहिक बलात्कार का मामला हो पूरी पार्टी बेशर्मी के साथ बचाव में आजाती है।(http://shashi-dubey.blogspot.in/2013/03/rahul-gandhi-involved-in-rape.html) जिस प्रकार अपराधी जनप्रतिनिधियों के विरुद्ध न्यायालय के आदेश को अंगूठा दिखा कर अध्यादेश पारित करके अपने दल के राशिद मसूद सहित तमाम अपराधियों को बचाने का षड्यंत्र किया जा रहा है, वह इस दल की सहज अपराधी मानसिकता और व्यवहार को समझने के लिया पर्याप्त है। 

Saturday, September 14, 2013

मुज़फ्फर नगर में प्रायोजित नर संघार

        पिछले दिनों मुज़फ्फर नगर में  कुछ हुआ वह बहुत ही दुखद और पीड़ा दायक था। प्रश्न उठता है कि जो कुछ हुआ क्या अचानक हुआ या पूर्व नियोजित था ? तथ्यों को देखने पर प्रतीत होता है यह पिछले कई महीनों से मुज़फ्फर नगर में चल रहा था; एक विशेष समुदाय के लोगों द्वारा बहु संख्यक समुदाय की बहू बेटियों के साथ निरंतर छेड़ छाड़ और बलात्कार की घटनाएं हो रहीं थीं; परन्तु प्रशासन आँखें बंद किये बैठा रहा। कुछ घटनाएं बलात्कार की जो प्रकाश में आईं, दिसंबर २१, २४, २९, ३०/२०१२ को १८ फरवरी २०१३ को, ३ अप्रैल, ३ जून २०१३ को, जुलाई ८ एवं २९ को, फिर अगस्त २३, २४ एवं २७ को (http://indiawires.com/25917/news/national/series-of-rapes-behind-muzaffarnagar-riots/) आखिर एक समुदाय को कब तक दुसरे समुदाय के अत्याचारों को सहन करना चाहिए था, क्या उनकी बहन बेटियों की इज्जत लुटती रहे और वे दर्शक बन कर देखते रहें या प्रतिकार करें। इतनी दर्दनाक घटनाओं के बाद भी प्रशासन  की निद्रा नहीं टूट रही थी और लोगों में अशंतोष तथा गुस्सा बढ़ता जा रहा था। कायदे से प्रशासन को चाहिए था कि अपराधी की धर्म जाति का विचार किये बगैर, वे  तत्काल पकडे जाते और पीड़ितों को स्वान्तना देनी चाहिए थी; परन्तु अधिकारी ऐसा कैसे करते, दुर्गाशक्ति नागपाल का उदहारण उनके सामने था। ऐसे में  एक दिन तो लावे को  फूटना ही था, २७ अगस्त को कवल गाँव में एक छेड़ छाड़ की घटना का विरोध करने पर हिंसा प्रारम्भ हो गई जिसमें तीन लोगों की म्रत्यु हुई, जिसमें छेड़ छाड़ करने वाला मुसलमान युवक सहनवाज़ कुरेषी था और जाट लडकी के दो भाई सचिन और गौरव सिंह थे; परन्तु पुलिष ने छेड़ छाड़ और जाट युवकों की ह्त्या को संज्ञान में ना लेकर, केवल मुसलमान युवक को मारने के अपराध में पीड़ित लडकी के परिवार वालों को ही बंदी बना लिया था ( http://en.wikipedia.org/wiki/2013_Muzaffarnagar_riots) प्रशासन पूरी तरह अल्पसंख्यक समुदाय के साथ था। हालात कश्मीर घाटी जैसे बनाए जा रहे थे, जहां कश्मीरी पंडितों की बहु बेटियों के साथ मुस्लिम आतंकवादी सरेआम बलात्कार करते थे और प्रशासन कुछ नहीं सुनता था, अंत में वे वहां से भागने को विवश हुए और घाटी हिन्दू विहीन हो गई; ठीक वही हालात समाजवादी पार्टी द्वारा मुज़फ्फरनगर में उत्पन्न किये जा रहे थे, आखिर समाजवादी पार्टी को मुसलमानों के वोट चाहिए थे। 
              इस घटना के विरोध में जाटों ने २८ अगस्त को पंचायत करने का निश्चय किया जिसे क़ानून व्यवस्था का उल्लेख कर प्रशासन ने रोक दिया और जाटों ने क़ानून का साथ देते हुए पंचायत टाल दी; परन्तु दूसरी ओर ३० अगस्त शुक्रवार को नमाज के बाद मुसलामानों की एक बड़ी पंचायत हुई जिसमें विभिन्न राजनैतिक दलों के नेताओं ने बहुसंख्यक समुदाय के विरुद्ध भड़काऊ भाषण दिए, इन नेताओं में समाजवादी पार्टी के राशिद सिद्दीकी, बी.एस.पी. के क़दीर राणा और नूर सलीम राणा तथा कांग्रेस के सैद्दुज्जाम प्रमुख थे। इतना ही नहीं वहां प्रशासनिक अधिकारी भी उपस्थित थे। क्या केवल दो दिन बाद क़ानून व्यवस्था सुधर गई थी? क्या यह खुले तौर पर सरकार द्वारा एक पक्षीय व्यवहार नहीं था? फिर ३१ अगस्त को जाटों की पंचायत हुई; परन्तु पंचायत से वापस जाते हुए खातिमा रोड पर एक परिवार की कार पर हमला करके उनकी कार जला दी गई, परन्तु सरकार अभी भी निश्चिन्त थी। निश्चित यह सब कुछ किसी भी समुदाय के लिए सहन शक्ति की पराकाष्ठा थी। जाटों द्वारा बहु बेटी बचाओ अभियान के अंतर्गत ७ सितम्बर शनिवार को एक बड़ी पंचायत बुलाई गई। इस पंचायत में निश्चित ही भड़काऊ भाषण होने थे और हुए, पंचायत के बाद जब लोग वापस जा रहे थे तब गंग नहर के किनारे मुसलमान गुंडों ने अचानक आक्रमण कर दिया और तमाम लोगों को मौत के घाट उतार कर नहर में फेंक दिया और उनके ट्रेक्टर भी नहर में फेंक दिए गए, अभी तक १७ ट्रेक्टर नहर से निकाले जा चुके हैं; चूंकि केवल बहुसंख्यक समाज के लोग मारे जा रहे थे अतएव सरकार और मुसलमान नेता निश्चिन्त थे; परन्तु यह हिंसा की आग अचानक गाँवों में फ़ैल गई और अल्पसंख्यक समुदाय के निर्दोष लोग भी मारे जाने लगे तब सरकार हरकत में आई, लेकिन राजनैतिक दलों का काम हो चुका था, वोटों का ध्रुवीकरण हो चुका था, समाज में वैमनस्य बढ़ चुका था। 
              इस सबसे एक बात निश्चित है कि साम्प्रदायिक दंगे तभी होते हैं जब सरकारों द्वारा किसी एक समुदाय के साथ पक्षपात पूर्ण व्यवहार किया जाता है। जब देश का प्रधानमंत्री ही बेशर्मी के साथ कहता हो कि इस देश के संसाधनों पर पहला अधिकार मुसलमानों का है तब दंगे और वैमनस्यता कैसे रोकी जा सकती है? एक बात और निश्चित है कि दंगे की पहल भी कभी बहुसंख्यक समुदाय द्वारा नहीं की जाती है, वह तो पानी सर से ऊपर निकल जाने के बाद केवल प्रतिकार करता है। चाहे वह गुजरात हो (जहां पहले २७ फरवरी २००२ को गोधरा में एक रेल के डब्बे के ५८ यात्रियों को जो हिन्दू थे मुसलमान गुंडों ने ज़िंदा जला दिया था ) या मुजफ्फरनगर हो। हाँ हिन्दुओं के मरने पर कोई हो हल्ला नहीं मचता, किसी को अपराधबोध नहीं होता फिर चाहे गोधरा में मारे गए हिन्दू हों या मुजफ्फरनगर में या कश्मीर घाटी में या १९८४ के दंगों में २७०० सिक्ख क़त्ल कर दिए गए हों; परन्तु अल्पसंख्यकों की म्रत्यु पर सालों साल मातम मनाया जाता है। जबकि मौत किसी की भी हो पीड़ादायक है और हर मृत्यु पर सरकार सहित सभी को पूरी तरह संवेदनशील होना चाहिए।  किसी भी सरकार के लिए धर्म या जाति के आधार पर किसी भी प्रकार का पक्षपात उस देश के लिए सदा घातक है और कभी भाईचार नहीं बन सकेगा। अपराधी केवल अपराधी होता है उसका कोई धर्म या जाति नहीं होती जिस दिन ये सरकारें और नेता इस बात को समझ लेंगे उस दिन तमाम समस्याओं का अपने आप निदान हो जाएगा।  
                  उपरोक्त सभी बातें १७ सितम्बर को आजतक चेनल और इंडिया टुडे द्वारा दिखाए गए वीडियो द्वारा सिद्ध हो गई है। मुज़फ्फरनगर में कोई हिन्दू-मुस्लिम दंगा ना होकर सपा के आजमखान के गुंडों द्वारा केवल हिन्दुओं का नरसंघार कर राजनैतिक लाभ लेने की योजना थी और पश्चिम उत्तरप्रदेश के मुस्लिम बाहुल जिलों से हिन्दू परिवारों को पलायन करने पर विवश करना है, जिसमें कांग्रेस बराबर की सहयोगी है क्यों कि भारत का प्रधानमन्त्री केवल मुस्लिमों से कैम्पों में मिले और हिन्दू पीड़ितों से केवल सड़क पर ही मिल लिए। २००२ के लिए रात-दिन आंसू बहाने वाले न्यूज चैनल और धर्मनिर्पेक्ष तीस्ता सीतलवाड़ और आम आदमी पार्टी के लोग अब चुप क्यों हैं?