Sunday, January 4, 2009

दिशाहीन नेतृत्व

स्वतन्त्रता के पश्चात् से इस राष्ट्र में निरंतर अराजकता और असंतोष बढ़ता चला जा रहा है, आज वो लोग जिन्होंने दासता देखी थी और उसके विरुद्ध संघर्स भी किया था यह कहते हुए पाये जाते है की इससे तो गुलाम ही अच्छे थे केवल अंग्रेजों के ही जुल्म सहने पड़ते थे वाकी जनता तो कानून का पालन करती थी, दुर्भाग्य से स्वतंत्रता के ६१ वर्ष पश्चात भी यहाँ के राजनायिक राष्ट्रीय प्राथमिकताएं निर्धारित नहीं कर सके हैं, ऐसी प्राथमिकताएं जिनका अनुसरण सभी सरकारें करें चाहे वो किसी भी दल की हों, कभी गरीबी हटाओ, कभी छुआ छूत हटाओ, कभी कर्ज माफ़ करो कभी कारखाने लगाओ, कभी राष्ट्रीयकरण करो तो कभी सब प्राइवेट सेक्टर में दे दो, कभी रोजगार योजना, कभी बेकारी भत्ता, कभी पुस्ताहार योजना तो कभी विकास निधि के नाम पर लूट की छूट, कुछ भी निश्चित नही है सब सनक पर आधारित है, परिणाम सामने है किसी भी छेत्र में कोई भी कार्य संतोष जनक तरीके से पूरा नाहे हुआ है और चारों ओर आतंकवाद, विद्रोह, अशंतोश, लूट,ह्त्या, बलात्कार, डकैती का वातावरण बना हुआ है, जन सामान्य असुरक्छित है, अशंतोस बढ़ता जारहा है, हर घटना के पश्चात उसकी और कड़े शब्दों में भर्त्सना कर दी जाती है अपराधी निर्द्वंद और उन्मुक्त घूम रहें हैं, जनता का न्याय व्यवस्था से विश्वाश उठाता जारहा है, सरकारें सामान्य विरोध या मांग को ताकत से कुचलने का प्र्यास तब तक करती है जब तक वह हिंसक नहीं हो जाता है, हर समस्या से मुह मोडे रख कर सत्ता में बने रहने का उपक्रम करती रहती है, चाहे किसी प्रान्त के पुनर्गठन की मांग हो, बँगला देशी घुसपैठ का मामला हो, धर्मांतरण का मामला हो, राष्ट्रध्वज के अपमान का मामला हो, वन्देमातरम गीत का अपमान हो, सरकार शान्ति की भाषा समझती ही नही है, संवाद के लिए आवश्यक है की दोनों पक्छ एक ही भाषा जानते हों और सरकार केवल गोली की भाषा ही समझती है इसलिए अराजकता तो फैलेगी ही, जब मुख्य मंत्री अपने जन्मदिन पर तोहफे पर धन वसूली करवा रहा हो तब अपराधियों का साहस तो बढेगा ही, पहली प्राथमिकता सबको रोटी, तन ढकने को कपडा सिक्छा, सदाचार और सुरक्च्छा होनी ही चाहिए, संसाधनों का समान रूप से सम्पूर्ण राष्ट्र में बटवारा होना चाहिए नाकि प्रभावशाली नेताओं के छेत्र में ही विकास कार्य हों

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