Sunday, December 21, 2008

धर्म और राज्य

धर्म और राज्य का आपस में अटूट सम्बन्ध रहा है धर्म के बिना राज्य नेत्र हीन की भांति है धर्म क्या है, धर्म जो धारण किया जाय वही धर्म है, किसके द्वारा धारण किया ? हर किसी के द्वारा धारण किया जाय वही धर्म है एक मिथ्या वादी व्यक्ति भी नही चाहता है कि कोई उससे झूट बोले , तो सत्य ही धारण करने योग्य है हमारे यहाँ एक कुतिया बच्चों को जन्म देने के कुछ दिन उपरांत दुर्घटना में समाप्त हो गई थी, तो एक सुअरिया उसके बच्चों को दूध पिलाने लगी यह सभी को मनभावन लगा, यही धर्म है तुलसीदासजी ने लिखा है 'पर हित सरिस धरम नही भाई, पर पीड़ा सम नही अधमाई', धर्म काल और देश की सीमाओं से परे है पशु पक्छी प्रकृति के धर्म से संचालित होते है; परन्तु विवेक और बुद्धी के कारन मनुष्य केवल प्रकति से संचालित नही होता है इसीलिये हर सम्प्रदाय में मनुष्य को दो नियमों "पाप और पुण्य में बाँधा गया था और स्वर्ग नर्क के रूप में दंड का प्राविधान किया गया था और सम्पूर्ण समाज इन्ही दो नियमों में बंधा चला जा रहा था स्वतंत्रता के पश्चात् इस राष्ट्र को धर्म निर्पेक्छ राष्ट्र घोषित कर दिया गया, संभवतः उनका आशय पंथ निर्पेक्छ्ता से रहा होगा, परन्तु ग़लत शब्द के प्रयोग का प्रतिफल यह हुआ कि इस राष्ट्र का अधिकाँश समाज पाप पुण्य के भय से मुक्त हो गया, और उन्मुक्त हो कर अनाचार करने लगा है आज यहाँ कुछ भी अधर्म प्रतीत नही होता है धन प्राप्त करने के लिए कोई भी निकृष्ट कार्य करना पड़े स्वीकार्य है आज चारों ओर अराजकता, हत्या, लूट, बलात्कार का वातावरण सा बना हुआ प्रतीत होता है, हर कोई दुखी है, भयभीत है नित नए कड़े से कड़े कानून बनते है परन्तु सब बौने प्रतीत होते है जब तक धर्म सापेक्छ राज्य की स्थापन नही होगी यह समस्या विकराल से विकरालतम होती जायेगी

2 comments:

Varun Kumar Jaiswal said...

धर्म जीवन चर्या है | इसको कभी राजनीति एवं राज्य से अलग नही किया जा सकता है |
उचित चर्चा की आपने |
धन्यवाद |

R S Chaudhary said...

sahmat